Thursday, December 17, 2009

उस खबर के अक्षर और उनकी अजमत

बात बहुत पुरानी है......... मेरे पुराने घर के सामने एक क्रिस्चयन परिवार रहता था। उनके घर के एक बुजुर्ग सड़क पार वाली सामने की चाय की दुकान पर बैठे रहते थे। एक दिन उनकी बहू मुझसे मिलने दोपहर को आई। मैं दोपहर में लंच के बाद ऑफिस के लिऐ निकलने को तैयार थी। कहने लगी , एक बच्ची है, उसे आपसे मिलाना है। कुछ ही देर में वह बच्ची को ले आई। कहने लगी, ये बच्ची रेलवे रोड पर अकेली जा रही थी, पता नहीं कहां की है, कुछ बता ही नहीं रही है। मेरे ससुर इसे ले आए थे, आप इसके बारे में कुछ लिख दो, हो सकता है, इसके घर के लोग इसे मिल जाए। मैंने लड़की से पूछा कि वह कहां की रहने वाली है लेकिन उसने कुछ ठीक से बताया नहीं। लड़की की उम्र यही कोई नौ दस साल की होगी। मै हैरान थी कि लड़की इतनी छोटी भी नहीं थी कि अपना पता न बता सके, फिर भी मैंने उससे बातचीत शुरू की .......उसने अपने बारे में नाम के सिवाय और कुछ भी नहीं बताया। खैर, मैंने उसका फोटो करवा कर उसके बारे में जो भी जानकारी क्रिस्चयन परिवार ने दी, नोट कर ली। चलते चलते , मैंने उससे कहा, अपना नाम लिख कर दिखाए, उसने एक दम से कलम उठाया और कागज पर पास ले जाने पर बाद रोक दिया। कुछ लिखा नहीं....मुझे ये बहुत अजीब लगा .... मैंने आफिस में जा कर एक चार कालम की खबर बना दी। दूसरे दिन क्रिस्चयन की बहू मेरे पास भागी भागी आयी और कहने लगी कि अखबार में पढ़ने के बाद उस बच्ची प्रीति के घर से उस लेने आए हैं। सदर थाने की पुलिस भी आयी हुई,आप भी साथ चलो। मैं गई तो प्रीति पुलिस के बीच घिरी बैठी थी। थोड़ी सी औपचारिकता के बाद पुलिस ने प्रीति को उसके घर वालों के हवाले कर दिया। मुझे खुशी हो रही थी कि एक चार कालम की खबर के कारण प्रीति को उसके माता पिता मिल गये थे।आज अचानक से प्रीति के माता पिता मेरा पता खोजते हुए आए। मुझे प्रीति शादी का कार्ड देने के लिए। प्रीति के पिता ने बताया कि उस दिन प्रीति एक छोटी सी बात पर नाराज हो कर बुलंदशहर से गाड़ी में बैठ कर मेरठ आ गई थी। आप उस दिन खबर न लिखती तो पता नहीं प्रीति कभी घर भी वापस लौट पाती या नहीं। प्रीति तो पूरी तरह से तैयार थी वो कभी घर न लौटे, इसी लिए तो उसने आपको कागज पर कुछ भी लिख कर नहीं दिखाया था।

Thursday, December 10, 2009

ये भी भला कोई वक्त है ......अब आने का

ये भी भला कोई वक्त है
अब आने का
न तारों की छांव
न गुनगुनी धूप की छत
न हवा में मस्तियाँ
न बरसात की मदहोशियाँ
न ही तेरे आने का कोई इन्तजार
...........
अरसा पहले लिखा था इस नज्म को
फोटो गूगल से साभार

Thursday, November 26, 2009

पापा ........मेरे प्यारे पापा

पापा
मेरे प्यारे पापा
मैं इंतजार करती रही
चाकलेट का
गुड़िया का
उस दिन पापा नहीं आए
पापा का शरीर आया
तिरंगा में लिपटा हुआ
माँ ने बताया
पापा शहीद हो गये हैं
आसमान में तारा बन गये हैं
पापा .....मेरे प्यारे पापा

Saturday, November 7, 2009

अनब्याही बातों के ख्वाब

वो अपनी आदत से बहुत मजबूर है। अनब्याही बातें उसे बहुत परेशान करती हैं। सपनों को काढ़ने वाले धागों के लिए वह हमेशा पक्के रंगों की दुआ करती रहती है। किसी के दुख को पता नहीं कैसे अपने भीतर उतार लेती है। दो अलहड़ प्यार करने वालों को उसने बहुत पास से जाना था। बहुत प्यार, बेहइंतहा प्यार। जब एक संग होने का वक्त आया तो वक्त भी एक तरफ खड़ा हो कर जन्म देने वालों का फैसले को सुनने लगा। काफी देर तक तो वक्त ठहरा रहा, फैसला ठहरा रहा। आग का दरिया पार करने का जुनून था लेकिन आग के दरिया के किनारों पर खड़े हो कर मुहब्बत को उसमें ढूबते और बह जाने को वे दोनों देखते रहे। थक कर अपने अपने रास्तों पर चले गए। सपने काढ़ने वाले धागों के रंग पता नहीं कैसे निकले

ये कोई नई बात नहीं है, ऐसा प्रेम करने वालों के साथ होता आया है। किसी की मुहब्बत ढूब जाए तो जमाना तो चलना बंद नहीं करता है। वो अपनी रफ्तार से चलता रहता है। वो, उनके प्यार की गवाह, पता नहीं कब बारी बारी उनके दिल में उतरती रही, उनकी जगह खुद को रख कर देखने लगी। बहुत बड़ा दर्द का समंद्र उठ रहा था। उसमें गिले शिकवे थे, उन लोगों का जिक्र था जिन्होंने उन्हें रोक लिया आग के दरिया में उतरने से पहले ही। दोनों जात और बिरादरी की लड़ाईयों को देख कर पीछे की ओर मुड़ गऐ। कमजोर कोई नहीं था लेकिन दर्द और भी थे जमाने में। वो तो वहीं ठहर गए लेकिन उनके दिलों का दर्द अब कभी किसी गांव तो कभी किसी ‘ाहर में घूमता रहता है।

और उसे.... अनब्याही बातों के ख्वाब बुनने वाले उल्हड़ प्रेमी पता नहीं कब तक परेशान करेंगे।

Monday, August 31, 2009

ये बातें अमृता के साथ हैं या उन फूलों के साथ

आज अमृता जी का जन्म दिन है .......अमृता की बात करो तो इमरोज की बात खुद ब खुद शुरू हो जाती है ....इमरोज से बात करो तो वहां सब ओर अमृता ही मिलेंगी .....इमरोज के शब्दों मैं उनकी एक नज्म ..... किसी के साथ बातें की .......पर बात न बनी .......चले .......पर पहुंचे नहीं ......सोये ......पर जगे नहीं ..............वो मिली..... उसने मुझे देखा .....पता नहीं क्या देखा .....मैंने भी उसे देखा..... पता नहीं क्या देखा..... बोले भी नहीं ...............पर बात बन गई .....चले भी नहीं .....पहुंच गए .....सोये भी नहीं ..... जाग गए ...... पता नहीं ये बातें अमृता के साथ हैं या उन फूलों के साथ जो आज इमरोज अमृता के लिए लाये हैं

Monday, July 27, 2009

........लेकिन पानियों पर चलने को राजी नहीं होते कदम ....

जिन वजहों से ........ पानियों में कभी बहे ........ वो वजहें अब पानियों में बह गई हैं ........ अब ........ उन पानियों के दो किनारे बन ....... पानियों में ...... उन वजहों को टटोलते हैं ....... पर हर बार हाथ खाली ही रहते हैं ....... थक कर खड़े होते हैं ....... पानियों में अपनी अपनी परछाई ........ देख पानी पर चलने की कोशिश करते ....... लेकिन पानियों पर चलने को राजी नहीं होते कदम .......

Tuesday, July 14, 2009

मैं क्या बोलूं .....मेरे पेरों तले की जमीं चोरी हो गई है ...

हमारी दुनिया का इतिहास दो लफ्जों से वाकिफ है, एक वतरपरस्ती लफ्ज से और एक वतनफरोशी लफ्ज से । इनमें एक लफ्ज को इज्जत की नजर से देखा जाता है तो दूसरे लफ्ज को हिकारत की नजर से देखा जाता है। ये जो मीडिया के सामने अपना मुंह छिपाये बैठी है, उससे सब पूछ रहे हैं कि उसका बलात्कार कैसे हुआ, वो कौन था वगैरा वगैरा............इसके होंठ वक्त ने सिल दिये हैं लेकिन इसके दिल की जुबान कह रही है........तुम कब उनकी बात करोगे , जिनके पैरों तले की जमीन को चुरा कर उनके बदन को ही उनका वतन करार दे दिया जाता है । और यह भी कह रही है........मैं .....जो कभी घरों की दीवारों में चीनी गई हूं तो कभी बिस्तर में चिनी जाती हूं......क्योंकि मैं एक औरत हूं.......
( ये फोटो सुनील शर्मा द्वारा किल्क किया गया है..........)

Friday, July 10, 2009

शुक्रिया ... ......आपने मुझे याद रखा

मेरे जन्म दिन के मौके पर यूँ तो आधी रात से ही फ़ोन काळ आने शुरू हो गए थे लेकिन सुबह सुबह कविता जी ने जब फोन पर जन्मदिन की बधाई दी और बताया की पाबला जी की पोस्ट में भी जन्मदिन का जिक्र किया गया तो मैंने सिस्टम आन किया ........इसके लिए मैं पाबला जी का शुक्रिया करती हूँ । कुछ देर में रचना जी ने भी मेरी फोटो के साथ जन्मदिन की पोस्ट डाली ........दोनों ही पोस्ट पर मेरे ब्लॉगर दोस्तों ने बधाइयों का अंबार लगाया हुआ है ......मुझे दिल से खुशी हो रही है .......मैं एक बार फ़िर पाबला जी का और रचना जी का शुक्रिया अदा करती हूँ ..... उन सभी दोस्तों भी शुक्रिया जिन्होंने मुझे विश किया

Sunday, June 28, 2009

......और नज्म अडोल खड़ी रह गई

रात जब जाग गई तो ...... अपनी ही लिखी नज्म ...... सिरहाने आन खड़ी हुई ...... नींद से बेजार आंखों ने ...... नज्म के फिक्रे के पीछे .......... छिपे साये को देखा.......... साया चुपचाप ....... गारे के इतिहास में उतर गया ........ दबी यादों को कुरेदने लगा........ सिले जख्मों के धागे ....... उसने नज्म के हवाले कर दिये ........... नज्म के होंठों में कंपन देख ........ साया फिक्रे में ......... जा मिला ........ और ..... नज्म अडोल खड़ी रह गई .........

Wednesday, June 24, 2009

उधड़े हालात सिलती ... ........वो लड़की

वो लड़की ........ जो हर वक्त अपने घर के कच्चे आंगन में बैठी बड़े ध्यान से उधड़े हुए हालात सीती रहती है। इस कदर ध्यान से सीने काम करती है कि लगता है , धागा खुद ब खुद कपड़े पर उगता चला जा रहा है। दिल कहता है...... दुआ भी एक धागा है जिससे बंदे का रब से सिला जुड़ा रहता है। दुआ के कई रंग हैं , धागों की तरह । जो धागे सिर्फ ख्चाहिशों की मांग के रंग से रंगे रहते हैं , उन धागों से काढ़ी गई दुआ के रंग अलग से होते हैं लेकिन जिन रंगों पर रब की मोहब्बत का रंग चढ़ा होता है , उनसे काढ़ी गई दुआ की खुशबू आती है। दुआ की छांव में बैठ कर कुछ मांगना जरूरी नहीं है, इस छाव में छिपे हुए खूबसूरत सफर की आहट सुनना भी खास है। वो लड़की, बहुत कुछ सिखाती है। वो लड़की , रब सरीखी मोहब्बत की बेल काढ़ रही है। मोहब्बत की गलियों की धूल बुहार रही है उस लड़की को यकीन हैं..... कभी तो वो आयेगा...... यहां कदम रखेगा......

Sunday, May 24, 2009

जिन्दगी के कुछ टुकड़े ......जो गिर गए कहीं

मेरा एक टुकड़ा मैले दिनों की सीड़ियों में गिर गया है। मेरा एक टुकड़ा खुश रंग आंखों के प्याले में गिर गया है। मेरा एक टुकड़ा बरसात के मौसम में , जुदायी में गिर गया है। मेरा एक टुकड़ा एक छोटी सी भूल के किनारे गिर गया है।मेरा एक टुकड़ा खामोशी के बीच गिर गया है। मेरा एक टुकड़ा टूटे हुए वायदे में गिर गया है। मेरा एक हिस्सा सच के सवाल के किनारे गिर पड़ा हैं। मेरा एक टुकड़ा ........ओह ! अब कैसे कहें..... क्या क्या कहें......? कहां कहां ढूढें़ हम अपने टुकड़े................... किसी की लिखी हुईं इन पक्तियों को पढ़ते पढ़ते पता नहीं क्यों किसी जंगल में कई काल, कई जन्म चलते जाने का अहसास होता है।
अरसा पहले एक नज्म लिखी थी......
जिस घड़ी हमने हंसना था खिलखिला कर

उस घड़ी हमने अपने सांसों की आवाज को
अपनी मुठ्टी में कस कर पकड़ लिया
और देखते रहे ---सूरज का बेअवाज सफर पड़ों की बेआवाज सरसराहट

Monday, May 4, 2009

पेड़ .......जिस पर अभी अभी बौर आया

मेरे शहर में एक प्यारी सी लड़की थी ......डी फार्मा की छात्रा , जिसने प्यार में धोखा मिलने पर अपनी जान गंवा दी। अपने प्रेमी के लिए उसका आखिरी नोट कुछ इस तरह से था............''मैं तुम्हें प्यार की तरह से प्यार नहीं करती , मैं तुम्हें देवता समझती थी। तुमने शादी करके दिखा दिया कि प्यार हमेशा बराबर वालों के साथ किया जाता है। हम ही गलत थे। एक बार यह तो देख लेते, तुम हमारे दिल में किस जगह रहते थे।''

.......... पता नहीं उम्र कच्ची थी या प्यार का रंग लेकिन प्यार रूसवा हो गया।

अरसा पहले एक नज्म यूं ही लिखी थी, नहीं जानती आज क्यों फिर वह नज्म जेहन में हावी हो रही है।

एक ख्याल

उगते सूरज सा ख्याल

पहली बार ख्याल से सामना हुआ

उस पेड़ के नीचे

जिस पर अभी अभी बौर आया था

ख्याल बौर से खेलने लगा

वो तपती दोपहरी थी

ख्याल के साथ आन खड़ा हुआ एक साया

हवा चली

बौर के कुछ अंश साये पर बिखरे

साये में कंपन हुआ

कायनात महक उठी

डाल पर बैठा परिंदा देख रहा था

कंपन

कायनात का महकना

और दूर से आता तूफान (अगला अंश फिर कभी ..................)

Sunday, April 26, 2009

टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया ...ये जीना भी कोई जीना है

कल उसकी नौकरी चली गई। बैंक की नौकरी। अकसर मेरी उससे बात होती थी। कभी बैेंक काउंटर पर तो कभी बैंक के काम से। काफी अच्छे घर की बच्ची थी। नौकरी गंवाने के दो दिन बाद वह मेरे पास आई। बोली.......मुझे अहसास भी न था कि ऐसा हो जायेगा.....नौकरी जाने का गम नहीं है.......इसकी वजहों से मन परेशान है........मैंने पूछा क्या.......बोली.......कुछ लोग नहीं चाहते थे कि मैं नौकरी करूं........ मुझे पद्मा सचदेव, ढोगरी ‘ाायरा की याद आ गई। जब वे जम्मू रेडियो स्टेशन पर काम करती थीं, उन दिनों उन्होंने कवि सम्मेलनों में जाना ‘ाुरू कर दिया था। बाद में कुछ लोगों ने जम्मू स्टेशन को लिखा कि इन्हें नौकरी से निकाला दिया जाए, इनके रहने से रेडिया स्टेशन की बदनामी हो रही है........पद्मा जी ने इस दर्द को कुछ इस तरह से लिखा.............. मैं आसमान को कैसे थाम लूं... चांदनी को कैसे गले लगायूं.... और आगे लिखा... टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया.... ये जीना भी कोई जीना है ....

Monday, April 20, 2009

वक्त खड़ा देखता रहा खुले जख्म को.........

चुप सी रात में

यादों के रेले में

अंदर कुछ तिड़का

वो जख्म खुल गये थे

जो सिल दिये वक्त ने

रेले से एक साया निकला

हाथ बढ़ा कर

उसने जख्मों से धागा निकाल दिया

वक्त खड़ा देखता रहा खुले जख्म को

और साया रेले में गुम हो गया

Friday, April 10, 2009

अक्षर......जो भीतर में उतर आते हैं.......

` वो है ` और ´वो था,` इसके बीच का फासला केवल दुनिया का बनाया हुआ है, मोहब्बत करने वाले यह फासला नहीं मानते हैं........... दिल की मिट्टी में जब किसी का नाम अंकुरित हो जाता है.........जब उसकी पहचान पनप जाती है तो पेड़ की ‘ााखा कटने के बाद भी सलामत रहती है। जहां चिंतन का बौर उसी तरह से पड़ता है, अनुभव की पत्तियां उसी तरह पनपती हैं और खामोशी की खुशूब उसी तरह से उठती है......अमृता जी इस बारे में एक बहुत अच्चा और रूहानी जज्बा रखती हैं, उनके कहे अनुसार, जिसने भी रजनीश को पाया है,उसके लिये रजनीश कभी ´था ` नहीं हो सकता है........ वो हवा में है, जिसमें सभी सांस लेते हैं....... रजीनश की बात वो इस तरह से कहती हैं.......किताबों में पड़े हुए अक्षर मर जाते हैं, इस लिये किताबों की बात नहीं, उन अक्षरों की बात है जो अपने भीतर उतार लिये हैं.......जो भीतर में बो दिये हैं.......अक्षर......जो भीतर में उतर आते हैं.......वो मरते नहीं और .....वो धड़कते हैं .....दिलों में बस जाते हैं अमृता जी को पता था कि आगे क्या होने वाला है, इसी लिये उन्होंनें ऐसी बात कही...... .......और अब, इमरोज कभी अमृता जी को `थी´ करके नहीं बुलाते हैं, जब भी बात होती है, वे उन्हें `हैं´ करके ही बात करते हैं....... वो हमारे साथ ही हैं, उनकी बातें मुझे क्योें कर आज याद आ गई........आज विक्टोरिया पार्क अग्निकांड को तीन वशZ हो गये, उस स्थल पर आज उन सभी को याद किया गया जो इस हादसे में गुजर गये। वहीं किसी ने कह दिया, अग्निकांड में जाने वाले कहीं गये नहीं हैं, यहीं हैं यानि कि `हैं´ धड़कते अक्षरों की तरह से........

Wednesday, April 1, 2009

रह गया तेरे होने का जिक्र.........

रह गया तेरे होने का जिक्र

बन गया खामोश अहसास

अब तो आदत सी हो गई है इस जिक्र की

क्योंकि ये हर वक्त साथ साथ चलता है

कभी ये मेरे दिल में उतरता है

और मुझसे बातें करता है

बात करने का मन हो न हो

यह बात करता है ,तेरे होने की

Tuesday, March 31, 2009

सुरों की धुनों पर ........

कहते हैं........ जिनकी रगोंं में संगीत होता है, वे जब सुर छेड़ते हैं तो उनकी उंगलियां सहज ही अपने सीने में जा कर रूह की तारें भी छेड़ देती हैं। और फिर उनके संगीत को सुनने वाले भी कई दिलों वाले होते हैं जिनकी रूह खुद ब खुद सुरमय हो जाती है। अभी पिछले सप्ताह मैं स्वतंत्रता संग्राम संग्राहलय गई तो वहां मुझे संग्राहलय के अध्यक्ष नहीं मिले। हां , उनके कमरे में एक वायलिन मिल गया। मैं वायलिन की धुनों का एक इमेज दिल में उतार रही थी कि तभी संग्राहलय के अध्यक्ष मनोज गौतम आ गये। उनसे मैंने रानी झांसी के बारे में कुछ जानकारी ली और चलते चलते पूछ लिया कि वायलिन भी क्या इतिहास से जुड़ा हुआ है। मनोज जी बोले, अरे, ये तो मेरा है। मैं सीख रहा हूं, कुछ कुछ इसकी तारों से बातें करता हूं। मैंने बेग रखा और उनसे कहा, जरा बजा कर तो दिखाइए , उन्होंने कुछ धुनें बजा कर पूरा माहोल संगीतमय कर दिया। बहुत सकून मिला। मैंने उनके वायलिन प्रेम पर रिमिक्स में आइटम लिखा तो मनोज जी बोले, अरे आपने तो सुरों को भी शब्द दे दिये। बातों का एक लहजा होता है, और क्या कर रहे हैं, आप, मैंने भी वही लहजा अपनाया। मनोज जी बोले, अरे श्रीमति जी खाना बना रही हैं और मैं वायलिन बजा रहा हूं। वायलिन के सुरों से गूंधा गया आटा और उससे बनी रोटी कितनी सवाद होंगी, इसे समझा जा सकता है।

Thursday, March 26, 2009

अक्षरों का यथार्थ ............

कुछ लेखकों को पढ़ते पढ़ते कई बार ऐसा होता है, जब अक्षर अपने होने का अहसास दिलाते हैं। कई अक्षर बाहर से कुछ और दिखते हैं, उनके भीतर उतर कर देखो तो उनके अर्थ कुछ और ही होते हैं। ऐसे ही कई अक्षरों ने मेरी रूह को छू लिया............ विमल मित्र की कहानी ´घरंती` इस समय याद आ रही है। कहानी कुछ इस तहर से है..........चौधराइन एक मकान की मालिक है और अपने मकान के कमरे घंटों के हिसाब से मदोंZ को किराये पर देती है............ये वे मर्द हैं जो गैर औरत के साथ दो घंटे गुजारने के लिये आते हैं। ऐसे ही आने वालों में एक दिन एक ऐसी लड़की भी ओती है जिसके पास अपने महबूब के साथ घड़ी भर बात करने के लिये कोई जगह नहीं है। दोनों गरीबी और मुफलिसी के मारे हुए हैं पर दोनों छोटी मोटी नौकरी करते हैं। लड़की घर से खाना लाती है, वही खाते हैं और आगे आने वाले समय के लिये सपने सजाते हैं। सपने बुन रहे थे कि कि लड़के की नौकरी छूट जाती है। जो सपने किनारों की तलाश में थे, तूफान में पड़ी कश्ती की तहर से ढोलने लगे। उसी दौरान एक बिगड़ेल रईसजादा चौधराइन से कहता है कि अगर वह लड़की उसे एक रात के लिये मिल जाये तो वह उसे एक हजार रूपया दे सकता है। चौधराइन नहीं चाहती कि ऐसा हो लेकिन एक दिन मजाक मजाक में उस लड़की को रइसजादे की ख्वाइश का जिक्र करती है। लड़की उस प्रस्ताव को मान जाती है। लड़की को एक हजार रूपया मिल गया। तूफान में ढोल रही सपनों की कश्ती को चप्पू की मानिद.........दो प्रेमियों की ढोल रही कश्ती किनारे लग गई। चौधराइन को जब दोनों की ‘ाादी का संदेश मिला तो वह तड़प उठी। सोच रही थी कि जो लड़की एक रात के लिये बिक गई, वह अब घर में रखने लायक कहां रह गई, वह तो बाजार की चीज हो गई। लड़की पर सपनों का साया था। उस रात रइसजादे ने उसके बदन को छुआ था, उसके सपनों , उसके महबूब के दिल को वह कहां छू पाया था। विमल मित्र भी यह कहानी लिख कर सोच में पड़ गये, अरे यह क्या हो गया ??? एक साधारण मन, साधारण सोच और संस्कारों के दायरे में घिर हुआ इंसान............. इसके बाद तो विमल मित्र इंसानी चिंतन की तकदीर लिखते चले गये। सच ,उन्होंने पाठकों को बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया और उनका आसमान भी बढ़ा कर दिया। इसी लिये वे बिमल दा कहलाये।

Sunday, March 22, 2009

जिंदगी रख के भूल गई है मुझे

जिंदगी रख के भूल गई है मुझे

और मैं जिंदगी के लिये

बह्मी बूटी खोज रही हूं

मिले तो जिंदगी को पिला दूं

और वो मुझे याद कर ले

Monday, March 16, 2009

हम उलटी दिशाओं के बादल

उस दिन
आसमान साफ था
बादलों में हलचल थी
वो अचानक मिले
जब उन्हें होश आया तो काफी आगे निकल चुके थे
वापस आना संभव न था
उस दिन
बदली ने कहा
मैं हवाअों के वश में हूं
मेरी किसमत में हैं पहाड़ों की चट्टानें
मेरे सामने हैं न खत्म होने वाली राहें
बिछड़ते हुए उदास न होना
कहीं
भटक जाऊं पहाड़ों में
या सुनसान राहों में
और मुझे नसीब हो रेत की एक कब्र
उस कब्र पर अगर पहुंचो
तो उस पर इबारत टांक देना
" हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "

Friday, March 6, 2009

मेरा ब्लॉग हुआ एक वर्ष का

आज मेरे ब्लाग को एक साल हो चला है। समय का पता नहीं चला। जब मैंने ब्लागिंग ‘ाुरू की तो मुझे ब्लाग की ए बी सी डी भी नहीं पता थी। हां, लिखने का ‘ाौक था ही क्योंकि मेरा प्रोफेशन ही ऐसा है। ब्लाग और ब्लािंगंग में मुझे कई लोगों का सहयोग मिला है। ब्लाग से भी बहुत पहले मुझे लिखने के लिये प्रेरित करने वाले हैं ओमकार चौधरी जो खुद भी एक ब्लागर हैं, साथ ही हरी भूमि के संपादक भी। ब्लाग को बनाने में मेरे बेटे गैरी और बेटे जैसे ही पत्रकार साथी सचिन राठौर ने बहुत मदद की। अकसर ब्लािंगग के टिप्स दिये रंजना भाटिया और रचना सिंह ने। तो आप समझ सकते हैं कि ब्लाग से कैसे मैं ब्लागिंग तक पहुंची। पिछले महीने मेरठ में ब्लागिंग पर सेमिनार हुआ तो मुझसे मंच पर बोलने के लिये कहा गया, मैं कुछ ज्यादा नहीं बोल सकी लेकिन आज कहती हूं कि सच में यह अभिव्यक्ति की आजादी तो देता ही है , साथ ही सृजन की दिशा भी दिखाता है। कुछ लिखना , फिर उस टिप्पणी मिलना, ये सब अच्छा अनुभव देते हैं। बहुत से पुराने पुराने ब्लागर हैं, जैसे समीर जी और अनूप जी उनसे भी समय समय पर बहुत कुछ सीखने को मिलता रहता है।

Tuesday, February 24, 2009

ये कैसे दिन हैं ????

ये कैसे दिन हैं
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
शिकवे शिकायत की गूंज है
आंखों के खुश्क समंदर में कोई ख्वाब नहीं, किरच है
ये कैसे दिन हैं
पैरों के नीचे गरम गारा है
कदम कदम पर हवा में तलखियां हैं
लेकिन पैरों को जल्दी है नजर की सरहद से पार जाने की
ये कैसे दिन हैं
मन में मोह नहीं, बस रोश है
दिल में तूफान है, लपट है
कहीं चैन नहीं, टिकाव नहीं, नींद नहीं ख्वाब नहीं
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
ओ योगी, बता तो ये कैसे दिन हैं
क्यों हर पल गुजरे पल की तरह गुजरता है
गुजरा पल क्यों सूल सा चुबता है
मन की नाजुक माटी में आने वाला पल
क्यों खंजर की नोक का इंतजार करता है
एक अजीब खलिश से सने ये अलफाज किसी खोये हुए ‘ाायर की डायरी के हैं

Sunday, February 15, 2009

लुक ऐ बिट हायर

दिल्ली रेडियो के लिये जब विश्व के कुछ लोकगीत अनुवाद करके एक धारावाहिक क्रम में प्रस्तुत किये गये तो उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करते समय वह पुस्तक `आशमा` हो ची मिन्ह के शब्द दोहराते हुए उन्हें ही अर्पण कर दी। फिर मुझे हो ची मिन्ह का तार मिला जिसमें उनकी ‘शुभ कामनाएं थीं। मन की दशा कुछ बदली। साथ ही एक अंग्रेजी फिल्म याद आ गई जिसमें महारानी एलिजाबेथ को जिस नवयुवक से प्रेम हो जाता है, उसे वह समंदरी जहाज दे कर एक काम सोंपती है, जहाज जब रफ्तार पकड़ता है महारानी दूर से जहाज को दूरबीन लगा कर देखती है। जहाज का नजारा महारानी को परेशान कर देता है। देखती है कि नौजवान की प्रेमिका भी जहाज में उसके साथ है, वे दोनों डैक पर हैं। उस समय महारानी को परेशान देख कर उनका शुभ चिन्तक कहता है, मैंडम ! लुक ए बिट हायर! उपर , उस नवयुवक और उसकी प्रेमिका के सिरों के उपर महारानी के राज्य का झंडा लहरा रहा था।
अमृता की डायरी के प्रष्ट का एक छोटा सा हिस्सा है।
कमजोर पल हर किसी की जिंदगी में आते है लेकिन जिंदगी चलती रहती है। जिंदगी की परेशानिओं से उपर देखने की आदत होने लगती है

Wednesday, February 4, 2009

चाँद ......फिजा .....और वेलेनटाइन

कल शाम में वेलेनटाइन डे पर एक स्टोरी लिखने बैठी तो टीवी की खबरें कानों में पढ़ने लगी, गौर से टीवी की ओर ध्यान किया तो फिजा अपने चांद को कोस रही थी। उसके हाथ में मोबाइल था जिसे वह मीडिया को दिखा रही थी कि वर्ष 2006 में चांद ने उसे मैसेज किया जिसमें उसने कहा , अगर तुमने मेरे साथ शादी नहीं कि तो मै मर जायूंगा। मैसेज दिखाने के बाद फिजा ने मीडिया को कहा ,चांद ने मेरा प्यार देखा अब वो मेरा दूसरा रूप भी देखने के लिये तैयार हो जाये। प्यार में जाने अंजाने ही दोनों प्रेमियों के चर्चे आम हो गये ,छिपाने के लिये कुछ न रहा। तभी मेरा ध्यान अपने सामने रखी हुई नोटिंग की ओर गया, मैंने वेलेनटाइन के लिये नोटिंग में लिखा हुआ था कि प्यार कुछ पाने का नाम नहीं है, प्यार बहुत त्यागने का नाम है। प्यार को जताया नहीं जाता है। अपने प्यार को सभी गलतियों के साथ स्वीकारा जाता है। बजाये अपने प्यार को बदलने के, खुद को उसके अनुसार बदलना प्यार है। मन में सोचा कि अब यह बातें केवल किताबों और किस्सों की बातें हैं। बात चांद और फिजा की हो या वेलेनटाइन मूड की, सभी में अर्थ प्रधान हो गया है। खैर.......मैं भी कहाँ अटक गई हूँ.........फिर बात होगी। मेरी नोटिंग को जाने दें.....चाँद और फिजा के तो राज अभी खुलते रहेंगे ......प्यार का मतलब तो प्यार ही रहेगा

Sunday, January 25, 2009

जन्म दिन मुबारक इमरोज

कई बातें ऐसी होती हैं जो खास नहीं लगती हैं लेकिन बरसों बाद उनके अर्थ तकदीरी अर्थ हो जाते हैं। एक जगह इमरोज ने लिखा है,
मेरा दूसरा जन्म हुआ
जब पहली मुलाकात के बाद
तुमने मेरा जन्म दिन मनाया
और फिर
मेरी जिंदगी का जश्न भी तुमने ही मनाया
खूबसूरत सोचों के साथ
और कविता कविता जिंदगी के साथ
शामिल हो कार वो भी चालीस साल
आज भी
तेरी वो शमूलियत
मेरी जिदगी में
जिंगदी की सांसों की तरह से जारी
और तेरी मेरी जिंदगी के मेल का वह जश्न भी
इससे से भी सालों साल पहले अमृता ने किसी कमजोर पल में जिंदगी से शिकवा किया
लक्ख तेरे अंबरा विच्चों, दस की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी , ते ओह वी तंद इकहरी
पर सच तो यह है यह इकहरा तार सालों साल गुजर जाने के बाद भी कमजोर नहीं हुआ और अमृता को अपने में लपेटे हुए साथ साथ चलता रहा। जब अमृता जिंदा थी, उस दौर में भी। आज जब अमृता नहीं हैं, तब भी। और हां, कुछ लोगों के साथ कुछ अलग सा घट जाता है। देश के बंटवारे का अमृता के जीवन पर बहुत गहरा असर रहा, यह असर उनके लेखन में भी पढ़ने को मिला। इमरोज का जन्म बटवारे से कई वर्ष पहले हुआ लेकिन वह दिन था 26 जनवरी का दिन। मैंने उनसे वैसे ही एक दिन पूछ लिया, आपका जन्म इतने अच्छे और राष्ट्रीय महत्व के दिन हुआ है, इस पर इमरोज मासूम सी हंसी हंस कर कहते हैं, जब मैं पैदा हुआ था तब 26 जनवरी का कोई महत्व नहीं था, 26 जनवरी का महत्व को तो तब हुआ जब इस दिन देश को गणतंत्र देश का दर्जा दिया गया।मेरा जन्म तो पहले ही हो चुका था। मैंने मन के अंदर ही अंदर कहा, इमरोज, तुम वो नूर हो, जिसकी रोशनी से समाज में बहुत कुछ ऐसा हो गया जिसकी लोग मिसाल देते हैं, देते रहेंगे। तुम अमृता का वो इकहरा तार हो जो न कभी कमजोर था, न कभी कमजोर होगा। तुमने आज भी अमृता को इस तार में लपेटा हुआ है।

Sunday, January 18, 2009

बादलों के महल में सोया है सूरज

चार दिन पहले ही मकर संक्रांति थी। सोचा रसोई में कुछ बना लूं। दो मन हो रहे थे। मन धुंआ धुंआ था लेकिन बात यह भी सता रही थी कि इस दिन का कुछ तो होना चाहिए। सो खीर चढ़ा दी। खीर की खुशबू से सारा घर महक उठा। इसके बाद खिचड़ी के लिये चावल धोए। चावलों पर जरा सा पानी क्या पढ़ा, कच्चे चावल भी महकने लगे। चूल्हे पर एक तरफ खीर बन रही थी तो दूसरी ओर खिचड़ी।दोनों में कड़छी चल रही थी। पतीले में कड़छी चलाते हुए लगा कि उंगलिये के जरिये धीरे धीरे कड़छी में मैं उतर रही हूँ । अब पतीले में खीर नहीं, यादों के बवंडर हिल रहे है। मन अंधेरे गारो में उतरने की गुस्ताखी पर उतारू हो गया। आज इसने ऐसी जुर्रत क्यों की? अपने आप को चिकोटी काटी तो देखा सामने बादल छाये हुए हैं। मन गारों से बचा तो बादलों में खो गया। बादलों के पार वाले महल में सूरज सोया हुआ है। वहां पहुंचने के लिये कोई रास्ता नहीं, न कोई सीढ़ी, न दरवाजा, न हीं खिड़की। जो रास्ते दिख भी रहे हैं, वहां पहुंचने के लिये बहुत संकरे हैं। खिचड़ी और खीर को पतीले से निकाल कर ढोंगे में रख दिया। साथ ही सूरज की चाहना को भी तह कर संभाल दिया।