Tuesday, March 31, 2009

सुरों की धुनों पर ........

कहते हैं........ जिनकी रगोंं में संगीत होता है, वे जब सुर छेड़ते हैं तो उनकी उंगलियां सहज ही अपने सीने में जा कर रूह की तारें भी छेड़ देती हैं। और फिर उनके संगीत को सुनने वाले भी कई दिलों वाले होते हैं जिनकी रूह खुद ब खुद सुरमय हो जाती है। अभी पिछले सप्ताह मैं स्वतंत्रता संग्राम संग्राहलय गई तो वहां मुझे संग्राहलय के अध्यक्ष नहीं मिले। हां , उनके कमरे में एक वायलिन मिल गया। मैं वायलिन की धुनों का एक इमेज दिल में उतार रही थी कि तभी संग्राहलय के अध्यक्ष मनोज गौतम आ गये। उनसे मैंने रानी झांसी के बारे में कुछ जानकारी ली और चलते चलते पूछ लिया कि वायलिन भी क्या इतिहास से जुड़ा हुआ है। मनोज जी बोले, अरे, ये तो मेरा है। मैं सीख रहा हूं, कुछ कुछ इसकी तारों से बातें करता हूं। मैंने बेग रखा और उनसे कहा, जरा बजा कर तो दिखाइए , उन्होंने कुछ धुनें बजा कर पूरा माहोल संगीतमय कर दिया। बहुत सकून मिला। मैंने उनके वायलिन प्रेम पर रिमिक्स में आइटम लिखा तो मनोज जी बोले, अरे आपने तो सुरों को भी शब्द दे दिये। बातों का एक लहजा होता है, और क्या कर रहे हैं, आप, मैंने भी वही लहजा अपनाया। मनोज जी बोले, अरे श्रीमति जी खाना बना रही हैं और मैं वायलिन बजा रहा हूं। वायलिन के सुरों से गूंधा गया आटा और उससे बनी रोटी कितनी सवाद होंगी, इसे समझा जा सकता है।

Thursday, March 26, 2009

अक्षरों का यथार्थ ............

कुछ लेखकों को पढ़ते पढ़ते कई बार ऐसा होता है, जब अक्षर अपने होने का अहसास दिलाते हैं। कई अक्षर बाहर से कुछ और दिखते हैं, उनके भीतर उतर कर देखो तो उनके अर्थ कुछ और ही होते हैं। ऐसे ही कई अक्षरों ने मेरी रूह को छू लिया............ विमल मित्र की कहानी ´घरंती` इस समय याद आ रही है। कहानी कुछ इस तहर से है..........चौधराइन एक मकान की मालिक है और अपने मकान के कमरे घंटों के हिसाब से मदोंZ को किराये पर देती है............ये वे मर्द हैं जो गैर औरत के साथ दो घंटे गुजारने के लिये आते हैं। ऐसे ही आने वालों में एक दिन एक ऐसी लड़की भी ओती है जिसके पास अपने महबूब के साथ घड़ी भर बात करने के लिये कोई जगह नहीं है। दोनों गरीबी और मुफलिसी के मारे हुए हैं पर दोनों छोटी मोटी नौकरी करते हैं। लड़की घर से खाना लाती है, वही खाते हैं और आगे आने वाले समय के लिये सपने सजाते हैं। सपने बुन रहे थे कि कि लड़के की नौकरी छूट जाती है। जो सपने किनारों की तलाश में थे, तूफान में पड़ी कश्ती की तहर से ढोलने लगे। उसी दौरान एक बिगड़ेल रईसजादा चौधराइन से कहता है कि अगर वह लड़की उसे एक रात के लिये मिल जाये तो वह उसे एक हजार रूपया दे सकता है। चौधराइन नहीं चाहती कि ऐसा हो लेकिन एक दिन मजाक मजाक में उस लड़की को रइसजादे की ख्वाइश का जिक्र करती है। लड़की उस प्रस्ताव को मान जाती है। लड़की को एक हजार रूपया मिल गया। तूफान में ढोल रही सपनों की कश्ती को चप्पू की मानिद.........दो प्रेमियों की ढोल रही कश्ती किनारे लग गई। चौधराइन को जब दोनों की ‘ाादी का संदेश मिला तो वह तड़प उठी। सोच रही थी कि जो लड़की एक रात के लिये बिक गई, वह अब घर में रखने लायक कहां रह गई, वह तो बाजार की चीज हो गई। लड़की पर सपनों का साया था। उस रात रइसजादे ने उसके बदन को छुआ था, उसके सपनों , उसके महबूब के दिल को वह कहां छू पाया था। विमल मित्र भी यह कहानी लिख कर सोच में पड़ गये, अरे यह क्या हो गया ??? एक साधारण मन, साधारण सोच और संस्कारों के दायरे में घिर हुआ इंसान............. इसके बाद तो विमल मित्र इंसानी चिंतन की तकदीर लिखते चले गये। सच ,उन्होंने पाठकों को बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया और उनका आसमान भी बढ़ा कर दिया। इसी लिये वे बिमल दा कहलाये।

Sunday, March 22, 2009

जिंदगी रख के भूल गई है मुझे

जिंदगी रख के भूल गई है मुझे

और मैं जिंदगी के लिये

बह्मी बूटी खोज रही हूं

मिले तो जिंदगी को पिला दूं

और वो मुझे याद कर ले

Monday, March 16, 2009

हम उलटी दिशाओं के बादल

उस दिन
आसमान साफ था
बादलों में हलचल थी
वो अचानक मिले
जब उन्हें होश आया तो काफी आगे निकल चुके थे
वापस आना संभव न था
उस दिन
बदली ने कहा
मैं हवाअों के वश में हूं
मेरी किसमत में हैं पहाड़ों की चट्टानें
मेरे सामने हैं न खत्म होने वाली राहें
बिछड़ते हुए उदास न होना
कहीं
भटक जाऊं पहाड़ों में
या सुनसान राहों में
और मुझे नसीब हो रेत की एक कब्र
उस कब्र पर अगर पहुंचो
तो उस पर इबारत टांक देना
" हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "

Friday, March 6, 2009

मेरा ब्लॉग हुआ एक वर्ष का

आज मेरे ब्लाग को एक साल हो चला है। समय का पता नहीं चला। जब मैंने ब्लागिंग ‘ाुरू की तो मुझे ब्लाग की ए बी सी डी भी नहीं पता थी। हां, लिखने का ‘ाौक था ही क्योंकि मेरा प्रोफेशन ही ऐसा है। ब्लाग और ब्लािंगंग में मुझे कई लोगों का सहयोग मिला है। ब्लाग से भी बहुत पहले मुझे लिखने के लिये प्रेरित करने वाले हैं ओमकार चौधरी जो खुद भी एक ब्लागर हैं, साथ ही हरी भूमि के संपादक भी। ब्लाग को बनाने में मेरे बेटे गैरी और बेटे जैसे ही पत्रकार साथी सचिन राठौर ने बहुत मदद की। अकसर ब्लािंगग के टिप्स दिये रंजना भाटिया और रचना सिंह ने। तो आप समझ सकते हैं कि ब्लाग से कैसे मैं ब्लागिंग तक पहुंची। पिछले महीने मेरठ में ब्लागिंग पर सेमिनार हुआ तो मुझसे मंच पर बोलने के लिये कहा गया, मैं कुछ ज्यादा नहीं बोल सकी लेकिन आज कहती हूं कि सच में यह अभिव्यक्ति की आजादी तो देता ही है , साथ ही सृजन की दिशा भी दिखाता है। कुछ लिखना , फिर उस टिप्पणी मिलना, ये सब अच्छा अनुभव देते हैं। बहुत से पुराने पुराने ब्लागर हैं, जैसे समीर जी और अनूप जी उनसे भी समय समय पर बहुत कुछ सीखने को मिलता रहता है।