Sunday, December 28, 2008

यह ख्याल है या जिक्र भर तेरा

सुबह सवेरे
कोहरे में सब कुछ
धुंधला गया
गुलाब का बूटा
जिससे महकता था आंगन
दरख्त जहां पलती थी गर्माहट
मोड़ जहां इंतजार का डेरा था
कुछ भी तो नहीं दिख रहा
सब धुंधला गया
दिल पर हाथ रखा तो
वह धड़क गया
तेरे ख्याल भर से
सोचा
यह ख्याल है या जिक्र भर तेरा
तुम कहते हो
मैं कहीं गया नहीं, यही हूं तेरे पास

Wednesday, December 10, 2008

तुम कहते हो `आंखें खोलो´

एक तुम हो
जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावनाएँ
एक मैं हूं
जो कागज पर भी कुछ उतार नहीं पाती
तुमने अकसर झील के पानी पर
पहाड़ और पेड़ ऐसे उकेर दिये
जैसे झील पर उग आया हो एक संसार
झील पहाड़ और पेड़
मैं खोती रहती हूं इनमें
और देखती हूं अपने अक्षरों को
झील में तैरते हुए
पहाड़ पर चढ़ते हुए
पेड़ पर लटके हुए
तब तुम कहते हो
`आंखें खोलो´
पर नजरें कैसे मिलायूं
उस पल

Monday, December 8, 2008

उसकी छुहन में है तेरी ही खुश्बू

वक्त ने मुझे समझाया
तब बड़ी मुश्किल से
हामी भरी थी तुम्हें भेजने की
भारी मन से गाड़ी सजायी
प्यार की झालरें लटकायीं
तुम्हें रवाना किया
खिड़की से जब जाती गाड़ी देखी
तो उसमें तुम अकेले नहीं थे
और वो वक्त कर गया मुझे उदास
सोचें बंट गई दो खेमों में
एक उदास तो दूसरी समझदार
उदास को समझदार ने कहा
उदास न हो
जरा ऊपर देख
प्यार की झालरों पर है तेरा नाम
उसकी छुहन में है तेरी ही खुश्बू

Saturday, November 29, 2008

क्यों नाकाफी हुई सुरक्षा जेकेट

आज सुबह से ही खबरिया चैनलों पर लता जी का गाया गीत चल रहा है, ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी----- साथ में एटीएस के चीफ को दिखाया जा रहा है जिन्हें उनके साथियों ने हेलमेट पहनाया और सुरक्षा जैकेट पहनायी , उसके बाद वे ताज होटल में प्रवेष करते हैं, उनका सामना वहां आंतकवादियों से हुआ, कुछ ही घंटों बाद वे आतंकवादियों से लोहा लेते हुए शहीद हो जाते हैं, बैकग्राउंड में वही गीत, ऐ मेरे वतन की लोगो जरा आंख में भर लो पानी , जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

ये उन लोगों के सोचने का भी वक्त है जो रक्षा सौदों में दलाली खाते हैं। अगर रक्षा के लिये खरीदे कवच सचमुच सुरक्षित होते तो क्या आंतकवादियों की गोली एटीएस के चीफ के हेलमेट छेद सकती थी! क्या आतंकवादियों की गोली उनकी सुरक्षा जेकेट को छेद कर उनके सीने पर लग सकती थीं।

मैं नमन करती हूं उन सभी शहीदों को जिन्होंने हमारी सुख शान्ति के लिये अपनी जान की बाजी लगायी है।

Monday, November 24, 2008

हवा में लटकते हर्फ़

अमूमन
किनारों पर बैठी
लहरें बता देती हैं
कि तूफान आयेगा
ये लहरे हैं समंद्र की
मन की कोई लहर नहीं होती
न पानी के छड़ापे
बस
इक तूफान उठता है
जो पलकों पर आ कर
ठहरता है
दीखते है
हवा में लटकते हर्फ़
मैं उन्हें कागज पर रख देती हूं
कई बार ये हर्फ़ बर्फ से ठंडे होते है
तो कई बार सूरज का सेक लिए

Wednesday, November 19, 2008

ये रहमत थी या उसने उलाहना उतारा

इक सुबह
मेरे आंगन में आ गया
इक बादल का टुकड़ा
छूने पर वो हाथ से फिसल रहा था
मैंने उसे बिछाना चाह
ओढ़ना चाहा
पर
जुगत नहीं बैठी
फिर
बादल को न जाने क्या सूझी
छा गया मुझ पर
मैं अडोल सी रह गई
और समा गई बादल के टुकड़े में
पता नहीं
किस टुकड़े को ओढ़ा
और कौन सा बिछ गया
मैं सिर से पांव तख
नहा गई
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई

Thursday, November 6, 2008

पुलिस की इस हरकत को क्या कहेंगे??????

आज का अखबार पढ़ा, एक युवक और युवती को पुलिस ने कार से पकड़ा। युवक को पुलिस ने पीटा और युवती को थाने में ले जा कर उसकी मां को बुला लिया। युवक और युवती की फोटो खींचने के लिये मीडिया को भी बुलाया गया। इसके आगे की कहानी आपको बताने की जरूरत नहीं, युवक को परेशान किया गया, युवती का भी अपमान किया गया. दोनों एक ही समुदाय के थे। पुलिस कहती है, कार पर काले शीशे चढ़े थे, इस लिये कार को पकड़ा, मुझे यह समझ नहीं आया कि अगर कार पर काले शीशे चढ़े थे तो इसके लिये निर्धारित जुर्माना होना चाहिए था, न कि युवक युवती का अपमान। यह भी कि कार कहीं अंधेरे में नहीं खड़ी थी, न ही युवक युवती कुछ गलत कर रहे थे। यह बात दीगर है कि दोनों बच्चों के बारे में उनके अभिभावकों को पता था या नहीं, लेकिन क्या पुलिस को ऐसी हरकत करनी चाहिए?????? क्या युवक युवती अगर दोस्त हैं तो उन्हें अपने घर में बता कर जाना चाहिए????? क्या माता पिता भी ऐसी घटनाओं के जिम्मेवार हैं जिनका अपमान हुआ ?????? बस एक छोटी सी बात बताना चाहती हूँ .....ऐसी ही एक घटना की किरदार ने अपमान से आहात हो कर आत्महत्या कर ली थी ...वो भी पुलिस की करतूत के कारण

Sunday, November 2, 2008

थमा हुआ है नीला आसमान न जाने किसके इंतजार में

ये रात कैसी आयी
खाली हाथ
न कोई ख्वाब
न ख्याल
पलकों की झालर पर जो तैरता था
वो चांद आज गायब है
आरजुओं की पेहरन पर जो तारे थे
वे भी मद्धम हैं
थमा हुआ है नीला आसमान
न जाने किसके इंतजार में

Wednesday, October 29, 2008

बादलों से उतरा एक नूर सा जोगी

बात सालों की है
दहलीज पर एक
जोगी आया
उसने मांगे कुछ अक्षर
पहले मैं सोच में पड़ गई
फिर
रब को याद किया और
मैंने दे दिये उसे अक्षर
उसने अक्षरोंकी माला गूंथी
आंखों से चूमी
और मेरी ओर बढ़ा दी
मुझे वो जोगी नहीं
बादलों से उतरा एक नूर सा लगा
मंत्रा के नूर से उजली हुई
वो माला मेरे सामने थी
मैं अडोल सी खड़ी रह गई
और सोचने लगी
कैसे लूं माला को
माला को झोली में लेने से पहले ही
मेरे पांव चल चुके कई काल
काल के चेहरे थे
कुछ अजीब
किसी के हाथ में पत्थर थे
तो किसी के हाथ में फूल
फिर अचानक
मैंने वो माला झोली में ली
और सीने से लगा ली
उपर से पल्ला कर लिया
पल्ले के अंदर बन गया इक संसार
अब कभी कभी पल्ला हटा कर
माला के अक्षरों को कागज पर रखती हूं
कभी उनकी कविता बनती है
तो कभी नज्म
जोगी का फेरा जब लगता है
कागज पर रखे अक्षरों को देखता हैं
मुसकुराता है
कहता है
यही तो मैं चाहता था
इनकी कविता बने
नज्म बने
और बिखर जाएं सारी कायनात में

Saturday, October 25, 2008

आखिर क्यों धमकाया किरण को लखनऊ पुलिस ने ?????

मैंने पिछली पोस्ट में किरण के बारे में आप सभी को बताया था। उसके बारे में जान कार कईयों ने कमेंट भेजे तथा किरण को प्रोत्साहित किया , उसके जज्बे को सलाम कहा। अब मुझे पता चला कि किरण के साथ लखनऊ पुलिस ने बुरा सलूक किया। उसे कहा गया कि मायावती उससे मिलना चाहती है लेकिन उसे उसके ठिकाने से जबरन उठा कर हजरतंज थाने में लाया गया , वहां उसका मोबाइल छीन कर उसके साथ बदसलूकी की गई, धमकाया गया तथा कहा कि अगर फिर उसने सीएम साहिबा से मिलने की कोशिश की तो उसका बुरा हश्र होगा। इस चेतावनी के साथ किरण को धकिया कर जबरन पुलिस की जीप में बिठा कर मेरठ उसके घर पहुंचा दिया। आप ही सोचें, एक दलित बेटी को अपनी बात कहने की कितनी आजादी देती है हमारी सरकार? किरण सिरफ यही तो चाहती है कि कन्या धन योजना को फिर से उत्तर प्रदेश सरकार शुरू कर दे। किरण ने मेरठ आते ही अपने आसपास के गांवों की लड़कियों को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया है। वह उन लड़कियों के साथ एक बार फिर से लखनऊ जाने के मूड में है।

Tuesday, October 21, 2008

किरण .......मेरठ की बहादुर बाला

किरण जाटव, जी हां! यही नाम है बहादुर बाला का। मेरठ की बाहरी बस्ती लाला मोहम्मदपुर की रहने वाली किरण को उस समय बड़ी तकलीफ हुई जब मायावती ने दलितों एवं गरीबों की बेटियों के लिये जारी योजना कन्या विद्या धन योजना को बंद कर दिया। किरण ने अपनी बात को मायावती तक पहुंचाने का नायाब तरीका खोजा और 14 अक्टूबर को सुबह चार बजे वह साइकिल से ही मायावती को मिलने के लिये राजधानी लखनऊ के लिये रवाना हो गई। जैसे तैसे वह 19 अक्टूबर को राजधानी पहुंच गई जहां उसे सीएम हाउस के गेट से यह कह कर लौटाने का प्रयास किया गया कि वह मायावती से नहीं मिल सकती। किरण कहती है कि वह मायावती के समक्ष अपनी बात रखे बिना नहीं लौटेगी। सोचने की बात है कि दलितों की कई ऐसी बेटियां हैं जिन्होंने कन्या विद्याधन योजना से अपनी शिक्षा पूरी की लेकिन जब योजना बंद हुई तो वे चुप बैठी रहीं , किरण चुप नहीं रह सकी। किरण अभी राजधानी में ही है। वहां के प्रशासन ने उसके जुनून की पहचान उसकी साइकिल को अपने कब्जे में ले लिया है। साथ ही उसे भी नजर बंदी सी हालत में ला कर खड़ा कर दिया है। बड़ी बात यह है कि जब किरण ने कन्या विद्याधन योजना को पुन: जारी करने के लिये आवाज उठायी तो उसका पहला विरोध परिवार की ओर से हुआ। उसे कहा गया कि वह लड़की जात है, चुप से बैठी रहे। अब आप ही सोचिए कि ऐसे हालातों में महिलाएं आगे आयें तो कैसे, अपनी बात आगे पहुंचाएं तो कैसे? दुखद तो यह है कि किरण उस प्रदेश की बेटी है जहां की मुख्यमन्त्री एक महिला है, उस शहर की बेटी है जहां की जिलाधिकारी एक महिला है, जहां की मेयर भी एक महिला है।

Wednesday, October 1, 2008

वक्त के साथ अक्षर गहरे हुए या फीके ....... ये वक्त जाने

अरसे बाद दराज खोला
कुछ धूल खाती चीजें मिली
टटोला तो कुछ मुड़े कागज भी मिले
जिन पर पहले कुछ लिखा
फिर लकीरें फेरी थीं
आंखों में वो अक्षर तैर आये
जिन पर लकीरें फेरी गई थी
वो अक्षर
खास अक्षर थे
आग को चूमना चाहते थे
जहर को पीना चाहते थे
उन्होंने
आग को चूमा
जहर को पिया
फिर
दराज में कहीं दब कर रह गये
धूल खाने के लिये
वक्त के साथ
अक्षर गहरे हुए या फीके पड़ गये
ये वक्त जाने

Monday, September 29, 2008

निमोलियों की खुशबुओं से सराबोर एक शाम

सेंटमेरीज स्कूल मेरठ के प्रतिष्टित स्कूलों में से एक है। २७ सितंबर को सेंटमेरी स्कूल ने अपने 200 वर्ष पूरे होने पर एक खूबसूरत शाम का आयोजन किया। इस ‘शाम की खास बात यह रही कि इसमें पुराने छात्रों को आमंत्रित किया था। इस समय के सेंटर कमान के जीओसी इन सी लेफि्नेंट जनरल एचएस पनाग भी इसी स्कूल के स्टूडेंट रह चुके हैं जो गुलपनाग के पिता भी हैं। वे भी इस ‘शाम को यादगार बनाने के लिये मौजूद रहे। मेरे दोनों बेटे भी इसी स्कूल से पासआउट हैं। मैं जब बच्चों की पेरेंट टीचर मीटिंग में जाती थी, उस समय की सारी बातें मुझे आज अनायास ही याद गई। स्कूल में आंवले और नीम के कई पेड़ खड़े थे जो आज भी हैं आंवले के सीजन में बेटों की जेबों में आंवले ही भरे रहते थे। बस्तें में निमोलियां भरी रहती। आंवले के दाग यूनीफार्म की ब्लू कमीज की जेब पर लगे रह जाते और निमोलियां बस्ते में पिचक कर अपनी खुशबू बिखेर देती। स्कूल की छुटृटी होने के बाद भी बच्चों का मन ग्राउंड से हटने का नहीं होता था। स्कूल के बाहर बाबू का ठेला रहता था, उससे कुछ न कुछ लिये बिना बेटे घर की ओर कदम नहीं बढ़ाते थे। अब बढ़ा बेटा पूना में है तो छोटा बेटा गुढ़गांव में। मैं सेंटमेरीज स्कूल में कई बार स्कूल के स्थापना दिवस एवं कई अन्य कार्यक्रमों को कवर करने लिये गई हूं लेकिन आज कई पुरानी बातें जेहन में उभरी। जिस समय स्टेज पर कार्यक्रम चल रहे थे, हवाओं में नीम और आंवलों की खुशबुयें तैर रही थीं। आंवले और नीम के पेड़ों ने मुझे बेटों के बचपन को याद दिला दिया। जैसे ये कल की बातें हों।

Saturday, September 27, 2008

नाम खुरच कर क्या साबित किया ????

ब्लागर ओमकार चौधरी जी की आज की पोस्ट को पढ़ कर बड़ा दुख हुआ, उन्होंने अपने ब्लाग पर एक पोस्ट डाली थी जिसे अमर उजाला के ब्लाग कोना कालम में प्रकाशित किया। अमर उजाला अखबार के किसी कर्मचारी या अधिकारी ने ब्लाग कोना से ओमकार जी का नाम खुरच दिया और ब्लाग का नाम जाने दिया। यह काम निश्चत रूप से उस समय किया गया होगा जब पेज छूट रहे होंगे। अगर समय रहते नाम हटाया जाता तो जैसा अखबार में दिखा रहा है, वैसा नहीं दिखाया देता । ऐसा लगता है कि नाम आखिरी स्टेज पर खुरचा गया है मैं स्वम भी अखबार में काम करती हूं। दिन भर खबरों के बीच में ही दिन गुजरता है। समझ नहीं आ रहा है कि मीडिया के लोग मीडिया के लोगों के लिये कैसी सोच रखते हैं। आप इस प्रकार की सोच को क्या कहेंगे? ऐसा करके आखिर क्या साबित करने का प्रयास किया गया है???

Thursday, September 25, 2008

खालापार की शबाना को मंजूर नहीं है गुड़िया बनना

शबाना ने मीडिया के सामने आ कर साफ कर दिया है कि उसे कोई भी फतावा गुड़िया नहीं बना सकता है। आरिफ की गुड़िया ने समाज की सुनी और अपनी जान दे दी। शबाना ने बहादुरी से दो टूक जवाब दिया है कि वह अब डा अबरार की हो चुकी है। उसका अपना हंसता खेलता परिवार है। उसकी जिंदगी में किसी और के लिये कोई जगह नहीं है। किसी पंचायत का फैसला या फतवा उसके के लिये काई मायने नहीं रखता है। कितना भी हो हल्ला हो, वह आबिद के लिये सोच भी नहीं सकती है। 14 वर्ष पूर्व शबाना का विवाह आबिद से हुआ जरूर था लेकिन आबिद ने ‘शोहर का कोई भी फर्ज पूरा नहीं किया।उसे मुसीबतों में छोड़ गया. इस पूरे मामले में दिलचस्प यह है कि शबाना बहादुर बनी है तो उसके समर्थन में कई और महिलाएं भी आगे आ चुकी । उसके ग्राम लावड़ की महिलाओं ने एकजुट हो कर अपनी आवाज बुलंद कर दी है तथा कह दिया है कि औरत कोई खिलौना नहीं है जिसे मर्द अपने हिसाब से खेले और मन भर जाने पर फेंक दे। वहां की नगर पंचायत अध्यक्ष अनीसा हारून ने भी एक बैठक कर कहा है कि शबाना को जब आबिद ने तालाक दे दिया है तो अब वह देवबंद से कैसा फतवा ला रहा है। ‘शबाना की मां तो यहां तक कह चुकी है कि अब आबिद चाहे फतवा लाये या पंचायत करे, वह किसी की नहीं सुनेंगी। ‘शबाना अपने परिवार में ही रहेगी डा अबरार के साथ। तो क्या यह मुस्लिम महिलाओं की ये नई आवाज है, मुसलिम समाज में एक नया बदलाव है, क्या मानते हैं आप? धार्मिक उलेमाओं को क्या करना चाहिए, औरत की निजता भी कोई मायने रखती है या नहीं?

Friday, September 19, 2008

माटी ने पी लिया अंबर की रहमत का कतरा

आज अचानक कम्पनी गार्डन जाना हुआ . कम्पनी गार्डन मेरठ की ख़ास पहचान है.वहां वाकिंग ट्रेक बनाया जा रहा है जिसका उद्घाटन ढलाई लामा अक्तूबर में करेंगे. वहां की हरियाली ने मुझे बहुत प्रभावित किया . कम्पनी गार्डन पहली बार नहीं गई थी.......कई बार देखा हुआ है....वहां की गीली माटी में नन्हे नन्हे पोधे कुदरत का नूर सा बिखेर रहे थे.आज गीली माटी की खुश्बो और पोधों ने मुझे इन पंक्तिओं की याद दिला दी जो मैंने अरसा पहले लिखीं थीं.
बरसात के बाद आंगन बुहारा
जमी माटी को निकाला
माटी की महक
बड़ी अनोखी थी
फेंकने का मन नहीं हुआ
गीली माटी को मुट्ठी बना
वही मुडेर पर रख दिया
कुछ दिनों बाद देखा
उसमें नन्हा पौधा निकल आया
सोचती रह गई
ये क्या हुआ
ये तन की माटी थी
या मन की माटी
जिसने अंबर की
रहमतों के कतरे पी लिए

Saturday, September 13, 2008

रूह का जख्म , एक आम रोग है............

मन हैरान है दुनिया की रीत देख कर । यहां दिल की कदर नहीं है। यहाँ अहसासों को सिला नहीं है। मेरे मन ने कुछ नया फील नहीं किया है। यह चलता आ रहा है। कभी जाने में तो कभी अनजाने में। इस समय लोग दिल्ली के धमाकों से हिले हुए हैं लेकिन कुछ धमाके चुपचाप भी होते रहते हैं जिनका किसी को पता नहीं चलता है। लोग हर दिन ऐसे धमाकों से रू ब रू होते हैं। मन घायल होता है। दूसरे ही दिन फिर मन के घाव पर मरहम लगा कर काम पर लग जाते हैं . कहीं पढ़ा था, दर्द से जब मन लाचार हो जाता है तो वह दूसरों के रहमों करम का आदी हो जाता है। हमारा अपना कुछ भी नहीं रह जाता है। यह दर्द हमें इतना शुद्ध कर देता है कि हम दूसरों के दर्द के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। हमें उनका दर्द अपना लगने लगता है.दिल्ली के साथ साथ हुऐ दूसरे धमाकों पर अमृता प्रीतम की एक नज्म याद आ गई है......
रूह का जख्म
एक आम रोग है
जख्म के नंगेपन से
अगर शर्म आ जाएं
तो सपने का एक टुकड़ा
फाड़ कर जख्म पर लगा लें
खैर ये तो चलता रहता है जिंदगी मैं....जिंदगी नाम है चलते रहने का....

Tuesday, September 9, 2008

आसमान में बादलों की आवारगी

चित्रकार तो एक से एक हैं लेकिन मौसम की आवारगी कभी कभी आसमान में बैहतरीन चित्र उकेर देती है. बादलों की इस आवारगी को ओमकार चौधरी ने अपने कैमरे में कैद किया..ओमकार चौधरी डी एल ऐ मेरठ के स्थानीय सम्पादक हैं

Sunday, September 7, 2008

प्रेम करने वालों के लिए भी कुंडली मिलाना जरुरी है क्या ???

जो प्रेम करते हैं, उनके लिये क्या जाति और क्या धर्म ........ ये हम सुनते आ रहे हैं। लेकिन ऐसा कम ही सुना जाता है कि प्रेम करने वालों के लिये क्या जन्म कुंडली और क्या अन्य वहम वैसे ये जन्म कुंडलियां और वहम प्रेम करने वालों को काफी दुखी करते हैं। अगर गृह नहीं मिले, गुण नहीं मिले तो प्रेम की चादर को कहीं तह करके रख देना पड़ता है। पर क्या यह सही है? दो प्रमियों को केवल कुंडली न मिलने पर विवाह के लिये आगे बढाया हुआ कदम पीछे खींच लेना चाहिए? क्या ऐसे लोगों को अपने अपने प्रेम को भूल जाना चाहिए? क्या जन्म कुंडलियां मिलानी जरूरी है? क्या जीवन में सब कुछ पहले से तय नहीं है

Thursday, September 4, 2008

कोई बताएगा कि बच्चे का क्या दोष है ??

टीवी की एक ख़बर ......... मां ने अपनी नौकरानी के खिलाफ स्टिंग आपरेशन किया है, यह जानने के लिये कि उसकी नौकरानी उसकी नौ माह की बेटी को ठीक से केयर करती है या नहीं। मां को स्पाई केम की क्लिपिंग से पता चलता है कि उसकी गैरमौजूदगी में नौकरानी बच्ची को मारती है, रूलाती है और दूध तक नहीं देती है। माँ का कलेजा दहल उठा। इस क्लिपिंग को मैंने भी देखा कि कैसे नौ महीने की बच्ची नौकरानी से मार खा रही है। उसके रूदन ने मुझे कहीं अंदर तक हिलाया लेकिन साथ ही यह भी सोचने को मजबूर किया जिन बच्चों के माता पिता नौकरी करते हैं वे बच्चे नौकरों के हाथ में सेफ और सिक्योर नहीं हैं। ये एक घर का हाल नहीं है, ऐसे कई बच्चे हैं जो नौकरों से पिटते हैं और दिन भर रोते रहते है। वे माता पिता के दुलार से तो वंचित रहते ही हैं , साथ ही सहम भी जाते हैं.स्वाल यह है कि कामकाजी माता पिता अपने बच्चों के बारे में क्या कदम उठाये? फिर से पुरानी व्यवस्था को अपनाएं जिसमें दादा दादी होते हैं, नाना नानी होते हैं, बुआ होती है, चाची होती है। या पुरानी नौकरानी को बदल कर कोई दूसरी नौकरानी रखें या जब तक बच्चा बड़ा नहीं होता है, या फ़िर बच्चे के देखभाल माँ स्वयं करे।आपको क्या लगता है, क्या करना चाहिए, है कोई सुझाव ????

Wednesday, September 3, 2008

ब्लॉग पर लिखने से क्या होगा ?

आफिस से घर आकर जैसे ही टीवी खोला, वहां एक मासूम सी तीन दिन की जख्मी बच्ची को दिखाया जा रहा था जिसे उसके माता पिता ने उसे तीन दिन पूर्व नहर में फेंक दिया था। उसकी किसमत अच्छी थी कि वह बच गई लेकिन उसके पैरों एवं बॉडी के अन्य हिस्सों पर कीड़ों ने काट रखा था। वह बुरी तरह से रो रही थी, उसका करहाना ऐसा था कि दिल दर्द से भर उठा। नहर में फेंकने के पीछे वही कारण होगा जो अभी तक रहा है। कारण चाहे कुछ भी हो, लेकिन हम सब, हमारा समाज अभी समझ नहीं रहा है, जिस दिन उसे समझ आयेगी, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। यह घटना फरीदाबाद की है।अभी कुछ माह पहले भी हरियाणा में ही ठीक ऐसी ही घटना हुई थी, मैंने वो खबर रात को लगभग 11 बजे देखी थी। रात भर सो नहीं सकी, कुछ विचार मेरे मन में आये, जो मैंने अपने ब्लाग पर डाल दिये थे, लेकिन मेरा सवाल है यह है ब्लाग पर लिखने से क्या होगा ?
क्यों फैंका गया मुझे नहर में
औरत मर्द के देह सुख से उपजी हूं मैं
उस औरत मर्द के लिये मैं कुछ भी नहीं थी
इसी लिये उन्होंने मुझे फैंक दिया नहर में
फैंके जाने के बाद फंसी झािड़यों में
और आ गई किसी नजर में
फैंके जाने का दर्द है बहुत बड़ा दर्द
मेरे जिस्म पर भी और मन पर भी
लोग कह रहे हैं
अब मेरी दुनिया बदल रही है
हो सकता है सही कह रहे हों
कल पता नहीं क्या हो,यह दर्द कम हो जाये या जानलेवा हो जाए
मुझे नाम मिल गया है
करूणा
हरियाणा की करूणा
कोई गोद भी मिल जायेगी
फिर भी मैं सोचूंगी
आखिर मुझे क्यों फैंका गया नहर में
क्या मैं बेटी थी इस लिये
वो बेटी जो भाई के लंबी उमर के लिये दुआ करती है
वो बेटी घर आंगन का करती है ख्याल
अपनी आखिरी सांस तक
मनविंदर भिम्बर

Sunday, August 31, 2008

जन्मदिन मुबारक हो....... अमृता जी

अमृता जी! जन्म दिन मुबारक हो, आप जहां भी होंगी, तारों की छांव में, बादलों की छांव में ,सब कुछ देख रही होंगी, आपको मेरी और आपके सभी चाहने वालों की ओर से जन्म दिन मुबारक। आज मुझे वह दिन भी याद आ गया जब मैं अमृता से मिलने उनके निवास हौसखास गई थी। उस दिन वे बहुत बीमार थी या यूं कहिए कि वे बीमार ही चल रही थी उन दिनों, ज्यादा बोल नहीं पा रही थी लेकिन फिर भी उन्होंने मुझे कुछ पल दिये, वो कुछ पल मेरे लिये सदैव अनमोल रहेंगे। यह मुलाकात मैं अकेले नहीं करना चाहती थी , लेकिन जब मिलने की घड़ी आयी तो मैं अकेले ही गई। मैंने इमरोज और अमृता दोनों से बातें की, यूं समझ लें कि उन पलों में हर बात जानने के लिये जल्दबाजी महसूस हो रही थी। उनके लेखन के बारे में , उनके और इमरोज के साथ साथ जीवन गुजारने के बारे में , उनके परिवार के बारे में, दुनिया की सोच के बारे में। सभी बातें हुई भी। उन्होंने औरत, प्यार, संबध और समाज सभी पर खुल कर कहा, उनके इस कहने में इमरोज ने काफी मदद की क्योंकि वे बोल नहीं पा रही थी। वैसे भी अमृता का जिक्र हो, इमरोज का न हो, ये कैसे हो सकता है? वो सब मैंने सखी के अप्रैल २००३ के अंक में एक आर्टीकल "अपनी बात" में समेटा। सखी जागरण ग्रुप की महिला मैगजीन है। उस समय मैं जागरण ग्रुप के साथ ही जुड़ी थी। इसे आप भी पढ़ सकते हैं। सालों बाद ,अभी पिछले सप्ताह फिर मेरी मुलाकात इमरोज से हुई, बहुत सी बातें हुई उनसे। मेरा फोकस था कि वे अमृता के बगैर कैसे समय बिता रहे हैं, उन्होंने मेरे इस जुमले पर एतराज किया, कहा, अमृता को पास्ट टेंस में मत कहो, वो मेरे साथ ही है, उसने जिस्म छोड़ा है, साथ नहीं। मैं कहीं भीतर तक उनकी इस बात से अभिभूत हो गई। फिर मन में ख्याल आया, अरे मैं तो आज भी अकेली ही आयी हूं। बेइंतहा मोहब्बत की कहानी को जान कर उनके सच्चे किरदारों को मिल कर ´कुछ` याद आ जाना लाजमी है। आज कहां है ऐसे प्यार करने वाले???? बहुत बातें हुई, बहुत देर बातें हुई, वो मैं अगली पोस्ट में लिखूंगी।

Tuesday, August 26, 2008

झारखंड का गरीब राजू

2007 की वह 7 फरवरी की सुबह थी, जब पहली बार मेरे घर आया, मैने पहली बार देखा तो वह काफी कमजोर और डरा हुआ लग रहा था। मैंने उससे उसका नाम नाम पूछा , उसने बताया, राजू। मैंने उसे देखते ही अपने पति से कहा, इससे मैं घर का काम नहीं करायूंगी। बोले, क्यों, मैंने कहा, यह तो बहुत छोटा है। मेरी बातें राजू ने सुनी तो बोला, आंटी, मुझे वापस मत भेजना, मेरी मां को पैसे की जरूरत है। घर में पैसे की तंगी है। मैं छोटा नहीं हूं, मैं पहले भी काम कर चुका हूं, मैंने पूछा कहां, बोला, गांव में पत्थर तोड़ने का काम किया है मैंने। अपने हाथ दिखा कर बोला, ये देखो, मेरे हाथ पत्थर तोड़ कर कैसे पत्थर हो गये हैं। मासूम के हाथ सचमुच पत्थर के से थे, उसकी मासूमियत से मैं ये भी भूल गई कि ये बच्चा मेरे पास घर का काम करने आया है। मैंने उसे प्यार से कहा, नहीं अब तुम यही रहोगे, मेरे पास। बस वो मेरे पास रहने लगा, उसकी उम्र यही होगी, कोई चोदह साल की लेकिन लगता बहुत छोटा था। झारखंड से आया था। दिन महीने गुजरे, राजू कुछ ही दिनों में कद निकालने लगा। छह महीने में उसका सांवला सा चेहरा भरने लगा और और उसमें महानगर की हवा दिखने लगी। हम आफिस निकल जाते, वह घर में ,बीजी मेरी सासु जी के पास रहता। उसकी उम्र को देखते हुए मैंने घर में पार्टटाइम नौकरानी रख ली लेकिन फिर भी वह मेरा काफी काम देता था। मैं उसे घर पैसे भी भिजवाती रही। जब बेटे आते तो वह बहुत खुष दिखयी देता। उनके कपड़े देख कर वैसे ही कपड़ों की मांग करता, मैं भी ला कर देती। एक दिन राजू बोला, आंटी, जब मैं घर जायूंगा तो मुझे बहुत सारे नोट देना, मैं अपनी मां की झोली डाल दूंगा। मैंने उसे समझाया कि रेल में छोटे नोट संभालने में दुविधा होगी, मैं जाते समय बड़े नोट ही दूंगी। अप्रैल में उसके गांव में मेला भरता है नवरात्रा के महीने में। मैं उसकी तैयारी कर रही थी, राजू बोला, आंटी आप तो ऐसे तैयारी कर रही हो जैसे मैं कभी आयूंगा ही नहीं, मैंने कहा, नहीं गांव में मेला देख कर तुम लौट आना। मैंने उसके हिसाब के पैसे उसके अंदर के कपड़ों में थैली में सिल दिये और कहा , मां के सामने ही जा कर अंदर वाले पैसे निकालना, टिकट दिलवायी और रेल में बिठा दिया, रेल में बैठ कर राजू बोला, मैं जाते ही फेान कर दूंगा। मुझे उसके अकेले जाना ठीक नहीं लग रहा था लेकिन उसकी मां ने रिक्वेस्ट की तो मैंने उसे भेज दिया। और राजू पहुंच गया अपने गांव, अपनी मां के पास, इस बीच उसके कई बार फेान आते रहे। जुलाई के किसी दिन वह फोन पर बोला, आंटी में कल बैठ रहा हूं आने के लिये, मैंने बोला, अभी मत आना , भईया दिल्ली में नहीं है मुंबई गया है, वह तुम्हें दिल्ली से रिसीव नहीं कर सकेगा, फिर दो दिन के बाद ही उसकी मां का फोन आया कि राजू की तबीयत ठीक नहीं है, मैंने ज्यादा गौर नहीं किया और दिन गुजरने लगे। आज अचानक उस बंदे का फोन आया जो राजू के गांव का ही तथा वही राजू को ले कर आया था, उसने बताया, राजू नहीं रहा, मेरे लिये यह चौकने की खबर थी, उसने बताया कि राजू की किडनी फेल हो गई थी, मां के पास इलाज के लिये पैसे भी नहीं थे, उसके गांव में कोई खास दवादारू भी नहीं हो सकी क्योंकि वहां अस्पताल भी नहीं है। रांची ले कर जाने के लिये घर में पैसे नहीं थे, बस चला गया गरीब राजू दुनिया छोड़। मेरा मन तभी से ठीक नहीं हो रहा हैं। बैचेनी महसूस हुई तो लिखने बैठ गई। दिमाग में आ रहा है कि गरीब क्या ऐसे ही चला जायेगा दुनिया से बिना दवा के, बिना इलाज के, हर दिन टीवी पर देखती हूं, गरीबों के लिये तैयार होने वाली योजनाओं के विज्ञापन, उनके लिये चिकित्सा की चिंताएं लेकिन राजू को तो इलाज नसीब नहीं हुआ। ऐसे न जाने कितने राजू हैं जो हर दिन मां को रोता बिलखता छोड़ जा कर रहे हैं हिंदुस्तान के देहातों से, लेकिन कौन सवाल उठाता है इस व्यवस्था पर।

Wednesday, August 13, 2008

महिला काजी ने पढ़ाया निकाह!

एक खबर बताना चाहती हूं, लखनउ में एक महिला ने निकाह पढ़ाया है। खास यह है कि ये निकाह भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन की अध्यक्ष नाइस हसन और इमरान का था। इस निकाह में कई बातें नये तौर तरीकों से हुई। जैसे निकाह पढ़ाने वाली महिला डा साईदा हमीद जो प्लानिंग कमीषन की सदस्य हैं। इसके अलावा निकाह कराते समय अंग्रेजी के वर्ड्स का अधिक प्रयोग हुआ। डा साईदा हमीद कहती है कि निकाह दो लोगों के बीच होने वाला एक एग्रीमेंट है जिनमें किसी मौलवी का होना जरूरी नहीं है। इसे मौलवी लोग खुले दिल से स्वीकर लेंगे, वक्त बतायेंगा लेकिन ,मजेदार यह है कि निकाह में मुसलिम महिला परसनल ला बोर्ड की अध्यक्ष साहिस्ता अंबर भी मौजूद रहीं। अब इस पर हंगामा न मचे कि महिलाएं काजी नहीं हो सकती है। वैसे जब समाज के ठेकेदारों की बात होती है वहां हल्ला गुल्ला मचना लाजमी है।

Sunday, August 10, 2008

आंसू अगर बिकते कहीं..........

आज सुबह ही खबर मिली , विश्णु खन्ना नही रहे, गीतकार और पत्राकार विश्णु खन्ना। एक बार तो यकीन नहीं हुआ लेकिन फिर उसी क्षण एक सप्ताह पहले की फोन की बात याद आगई, और साथ ही याद आ गई उनके कुछ पक्तियां, फिर नई सुबह होगी फिर नया गीत होगा इस गीत को अब जाने दो इसे मत रोको मैंने वो डायरी खोली यहां एक पक्तियां मैंने लिख छोड़ी थी। उस दिन का मंजर भी सामने आ गया जब उन्हें उत्तर प्रदेष हिंदी संस्थान की ओर से महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्राकारिता पुरस्कार मिलने पर एक समारोह मनाया था। उस दिन वे मंच से जी खोल कर बोले। कतिवा, गीत और आकाषवाणी की बाते हुई। फिर एक बार,उस दिन जब मैंने जब उनसे फोन पर उनके घर आने के लिये अनुमति मांगी तो वे मुझे गेट पर ही मिल गये। खूब बातें हुए थी उन दिन भी। कुछ बातें तो लिख कर भी की गई। महापौर के चुनाव के सिलसिले में मैं उनसे मिलने गई थी। उन्होने अपने परम मित्रा अभय गुप्त और भारत भूशण के लिये भी काफी भावुक बातें की और बताया कि अब इस कालोनी में आ कर उनसे दूर हो गया हूं और सेहत भी कहीं जाने की अनुमति नहीं देती है। चालीस साल आकाषवाणी को देने के बावजूद वे अपने उस दौर को कभी नहीं भूले। मुझे अपने आकाषवाणी के दौर की कई फोटो दिखाए। मैंने पहली बार यह महसूस किया कि यह इंसान कितना अकेला है। उनका एक बेटा है, एक बेटी है। बहूं बहुत ख्याल करती है लेकिन सब की अपनी अपनी दुनियां है, सभी व्यस्त हैं। यह व्यक्ति अगर चाहता तो आज न जाने कहां होता, कई ऐसे मौके आये जो उन्हें आसामन की बुलंदियों पर भी पहुंचा सकते थे लेकिन उन्होंने कभी अपने जमीर को अनदेखा नहीं किया। मुझसे बोले आंसू अगर बिकते कहीं होता बहुत धनवान मैं मुझे सुविधाओं की कभी कमी नहीं रहीं लेकिन मैंने अपने दिल की सुनी है। आज गीत बिकता है। गीतकार बिकता है। क्या करूं , मैं ऐसा नहीं हो सकता हूं। अगली पोस्ट में जारी रहेगा

Sunday, July 13, 2008

बोल्ड लेखन की मलालत

अभी चार दिन पहले ही रचना ने एक कविता पोस्ट की थी ´नारी का कविता ब्लाग` पर, ´इस लिये मुझे फक्र है कि मैं दूसरी औरत हूं` कविता ने बहुत अच्छी बहस छेड़ दी। अब तक इस पर तीस से अधिक कमेंट आये जो अपने आप में एक रिकार्ड है। कमेंट ने यह भी साफ किया कि समाज की सोच में परिवर्तन तो है लेकिन हम सच से मुंह फेर लेते हैं। खैर , सबजेक्ट ऐसा रहा जिसे पढ़ कर सभी ने इस पर बहुत कुछ सोचाकिसी ने इसे समाज को तोड़ने की बात से जोड़ा तो किसी ने इसे जमाने की बदलती तस्वीर कहा। कुछ कमेंट पर मुझे अफसोस भी हुआ, जिसमें देह को सोंपने के सवाल पर भी तंज कसे गये। रचना की बोल्डनेस पर मुझे इस्मत चुगतायी की याद आ गई। उसे लिहाफ के लिये काफी मलालत झेलनी पड़ी थी, बाद में तो उसे लाहौर कोर्ट में भी प्रस्तुत होना पड़ा। यहां में जिक्र कर दूं कि इस्मत आपा को बोल्ड लेखन की मलालत क्यो झेलनी पड़ी। उन्होंने ´लिहाफ` की किरदार जान बेगम के बारे में वह सब कुछ सच सच लिख दिया जिसे उस दौर में लिखना तो क्या, आपस में चर्चा करना भी जुर्म था। जान बेगम जवान थी, खूबसूरत देह की मालकिन लेकिन उनके पति उनकी जवानी को देखते ही नहीं थे। फिर वे अपनी नौकरानी रब्बो के साथ मस्त हो गई। जान बेगम और रब्बो के बीच जो रिष्ता बना, उसे इस्मत आपा ने अपनी कहानी ´लिहाफ` में लिखा। दो औरतों के बीच रिष्ते की बात आज भी समाज को हजम नहीं होती है तो उसे दौर में तो कोई सवाल नहीं पैदा होता है। इस कहानी पर बहुत रोला मचा लेकिन इस्मत को तो कुछ अलग करने का जुनून था। वे लाहौर कोर्ट में प्रस्तुत हुई, उनका साथ उस समय केवल मोंटो ने दिया। रोले रप्पे की बात आई गई हो गई लेकिन उस कहानी की किरदार जान बेगम का निकाह दूसरी जगह हो गया और जब इस्मत को वह एक पार्टी में मिली तो उनकी गोद में एक बच्चा भी था। वह पहले भी पूर्ण और खूबसूरत दिखायी दी तो इरस्मत को लगा कि उनकी कहानी को सार्थकता मिल गई। इसी के साथ एक और लेखिका का जिक्र भी मैं करना चाहूंगी, वह है krishna sobhati । इन्हें भी अपने लिखे पर काफी कुछ सुनने को मिला जब इन्होंने ´मित्राो मरजानी` को लिखा। मित्राो यानि सुमित्राारानी , एक सभ्य परिवार की बहू ,जिसे बहू बने रहने के तौर तरीके पसंद नहीं हैं। उसका खुलापन ससुराल में किसी को एक आंख नहीं भाता है। इसी लिये वह घर परिवार में तो विवादास्पद बनी बाद में उसे हिंदी कथा जगत में भी काफी जलालत का सामना करना पड़ता है। मित्राों का चरित्र उस समय भले ही कितने भी विवादों में रहा हो लेकिन सोचने की बात यह है उसमें ममता, मां बनने की चाहत और वासना-सरिता अगर बहती है तो उसमें सोबती का क्या कसूर है। रचना , अब समय बदला है लेकिन विद्रोही कलम ने तो सालों पहले सोच से परते उठानी प्रारंभ कर दी थी। तुम्हारी कलम नारी के सभी पुराने बिंबो को खिलाफ नया आकशZण है। ये तुम्हारी कविता की तारीफ नहीं है, न ही कोई कमेंट, यह तुम्हारी लेखनी की बोल्डनेस है जिसे मैंने चैट के दौरान तुमसे सांझा किया था। तुमने समाज की ऐसी दुखती रग पर प्रहार कर दिया है ,दूसरी औरत के फक्र को जाहिर कर जिसे कोई सहन नहीं पाया आसनी से।

Saturday, July 12, 2008

पापा के पचास दिन

पचास दिन के बाद डा तलवार रिहा हो गये। आरूिश के पिता डा तलवार। एक खबर, लेकिन इस खबर के पीछे का सच कोई जान नहीं पायेगा। अब कोई कहेगा कि यू पी पुलिस को जवाब देना चाहिए। कोई कहेगा कि सीबीआई ने बहुत अच्छा किया है। इस पूरे प्रकरण में मुख्य बात है वो दर्द जो डा नुुपुर ने बेटी को खो देने के बाद अकेले झेला क्योंकि डाक्टर तलवार भी जेल में थे, उधर डाक्टर तलवार ने भी इस दुख को अकेला झेला क्योंकि बेटी को तो खो दिया, साथ ही बेटी की हत्या का आरोप भी झेला। तलवार दंपत्ति की इकलौती संतान थी आरूिश। ‘ााष्विवाह के चौदह साल के बाद आरूिश का जन्म कई इलाजों , मन्नतों और दुआयों के बाद हुआ था। आरूिश टेस्ट ट्यूब बेबी थी, मात्रा चादह साल की, जिसने दुनिया को ठीक से देखा भी नहीं था। उस पर क्या क्या नही दिखाया गया मीडिया में। इसमें मीडिया का रोल भी संवेदनाअों से परे चला गया। कभी आरूिश के बलात्कार की नई खोज की खबर तो कभी डाक्टर तलवार के डाक्टर दुरानी के साथ नाजायज संबंधों की खबर। आखिर होड़ यह थी कि कौन कितनी पहले खबर प्रसारित करता है। किसी ने यह नहीं सोचा कि सामान्य बाप अपनी बेटी को क्यों मारेगा? वह बेटी जो चौदह सालों के बाद उन्हें नसीब हुई। किसी को यह समझ नहीं आया कि आरूिश कोई बड़ी गलती भी करती तो भी डाक्टर तलवार उसे मारना तो क्या, डांटते भी नहीं। जब से डाक्टर तलवार को सीबीआई ने आरोपों से बरी कर दिया , उसी पल से सारी खबरों में डाक्टर तलवार के प्रति अपनापन दिखने लगा। सवाल यह है कि वो पचास दिन तलवार दंपत्ति के जीवन में कैसे वापस आयेंगे जो उन्होंने मानसिक यातना में गुजरो है। कभी मान को ठेस तो कभी मन को ठेस।

Sunday, June 15, 2008

कैसा है मौसम

आज सुबह अभी बिस्तर भी नहीं छोड़ा था कि मैसेज आ गया, हैप्पी रेनी डे। गैलरी में उठ कर देखा तो सचमुच बरसात हो रही थी। मेरे देखते देखते बरसात तेज हो गई। सच ऐसे मौसम को देख कर लगा कि बच्चे ऐसे ही नैनीताल गये हैं। यहां भी नैनीताल सा ही मौसम है। अखबार उठाया तो उसमें भी मौसम वैज्ञानिकों की बातें पढ़ने को मिली। एक अखबार में तो किसानों और उनकी फसलों के बारे में भी लिखा हुआ था। फिल्मों में मुंबई की बरसात को रोमांस से जोड़ा जाता है लेकिन सुबह सुबह का मौसम देख कर मुंबई भी का भी दिल छोटा हो रहा होगा। रेडियों आन किया तो रेडियो जॉकी भी मौसम से सराबोर मिली, लगा कि राजधानी में भी मौसम खूबसूरत है। फिर गीतों का दौर चल निकला, भीगी भीगी रातों में भीगी बरसातों में कैसा लगता है-----सच कितना रोमांस है इस गीत में। एक और गीत याद आता है, प्यार हुआ इकरार हुआ, प्यार से फिर दिल डरता है क्यों---------राज कपूर और नरगिस की जोड़ी अनायास ही आंखों में तैर जाती है। हिंदी फिल्मों में बरसात के एक से एक रोमांटिक गीत दिये हैं। बरसात की फुहारों में झूमने को प्रेेमियों को बहाने दिये हैं। वैसे देखा जाए तो फिल्मों की बात छोड़ दें तो काई विरला ही सुखी होता होगा बसरात में भीग कर। अधिकतर तो भीगने पर काफी दुखी होते हैं। मौसम चाहे गमीZ का हो या सदीZ का। कई बार बरसात में माल रोड से गुजरते हुए देखा गया है कि प्रेमिका प्रेमी की बाइक के पीछे बैठी प्रेमी की पीठ में धंसी जा रही है, प्रेमिका लगता है कि ऐसे बचा जा सकता है वरसात से। हां! माल रोड के कंपनी गार्डन में बरसात के मौसम में प्रेमी जोड़े जरूर मौसमा का लुत्फ लेते हैं। प्रमियों को नहीं पता कि बरसात का पानी कुछ घरों की छतों से होता हुआ जब घर के सामान पर गिर कर उसे खराब कर देता है तो उस घर के लोगों को कैसा लगता है। जब वाटर लॉगिंग से गुजरना पड़ता है तो कैसा लगता है। एक बात और, बरसात से जब आबू का नाला उपर तक भर जाता है तो उस पर तैर रही प्लािस्टक की बोतलों जमा कर उन्हें बेचना बच्चों बहुत भाता है क्योंकि बोतले बेच कर कुछ अपनी मां को रात की रोटी का जूगाड़ करने में मदद करते है तो कुछ भुटृटे का मजा लेते हैं। खैर, बरसात में बरसात के गाने सुन कर उनका मजा लेना ही ठीक है, क्या सोचना और बातों को। रेडियो जॉकी का मस्त अंदाज सुनिये।

Sunday, April 20, 2008

कहानी गुड़िया की

एक था आरिफ एक थी गुिड़या, गुिड़या मर गई लेकिन फिर खत्म नहीं हुई कहानी।कहानी आज भी चल रही है। पूछो क्यों?आरिफ अचानक जब कारगिल की लड़ायी के दौरान मस्कोह सैक्टर से लापता हो गया तो भारतीय सेना ने पहले उसके लापता होने की बात कही और फिर उसे भगोड़ा करार दे दिया। लापता होने के लगभग पांच सालों के बाद सेना ने जानकारी दी कि आरिफ पाकिस्तान की जेल में हैं। इसके बाद आरिफ को पाकिस्तान जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन आने पर उसे पता चला कि उसकी दुनिया उजड़ चुकी है, जिस गुिड़या को वह छोड़ कर गया था, उसने तौफीक से विवाह कर लिया है। इधर, गुिड़या भी कम उहापोह में नहीं थी। जिस दिन आरिफ अपने घर मुंडाली पहुंचा, गुिड़या पेट से थी। मैंने जब गुिड़यों को उसके ससुराल में देखा तो उसके चेहरे पर गम की लकीरे साफ चमक रही थीं। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किसकी पत्नी है, आरिफ की या तौफीक की? तौफीक का बच्चा पेट में ले कर उसे आरिफ के घर में रहना बेहद दुष्वार लग रहा था। यह बात उसने मेरे कानों बुदबुदा कर कही भी। मीडिया ने भी गुिड़या और आरिफ काफी परेषान किया। आखिर गुिड़या क्या कहे ? और क्या कहे आरिफ ? तौफीक की सुनने का तो सवाल ही पैदा नहीं हो रहा था। पंचायतों, उलेमाओं और मीडिया को सहते सहते गुिड़या ने समय से पहले ही एक बच्चे को जन्म दिया और बीमार रहने लगी। आखिर दो जनवरी 2006 को गुिड़या ने उस दुनिया को छोड़ दिया जिसने उस पर अपने सारे नियम थोपे और उसे अपनी मजीZ से जीने भी नहीं दिया। आरिफ की कहानी गुिड़यां के मरने से खत्म नहीं हुई। उसने गुिड़या के मरने के दस दिन बाद ही उसके बेटे मतीन को तौफीक के हवाले कर दिया और खुद छढ़ौली की साइस्ता से निकाह कर लिया। आरिफ की जिंदगी में अभी दुष्वारियां बाकी थीं। मुसीबतें आरिफ का एक एक कर इम्तेहान ले रही थीं। उसकी दूसरी बीवी ने एक बेटी अनम को जन्म दिया और उसी दिन के बाद से वह बीमार रहने लगी। उसे ब्लड कैंसर था लेकिन यह बात उसने छिपा कर रखी और 19 अप्रैल को दिल्ली के सैनिक अस्पताल में उसकी मौत हो गई। मुझे आज भी याद आता है गुिड़या की वह खूबसूरत आंखें जिनमें दिल के अरमान तैर तो रहे थे लेकिन लेकिन बहुत खामोषी से । वह आरिफ के घर में थी और उसके दिल में तौफीक था, पेट में तौफीक के प्रेम की निषानी, बहुत दुष्वार लग रहा था गुिड़या को यह सहना।गुिड़यां मरी लेकिन आरिफ और गुिड़या की कहानी खत्म नहीं हुई। तौफिक और गुिड़या का बेटा मतीन तौफीक को मिल गया लेकिन दुनिया भर की जलालत के बाद। अब साइस्ता और आरिफ की बेटी , पता नहीं उसका क्या होगा ? इंसान का किया धरा सब सामने आता है लेकिन फिर भी समाज, उलेमा और कायदेण्ण्ण्ण्ण् दिल क्यों दुखाते हैं?

Friday, April 18, 2008

सेरोगेट नानी

रिश्तों में भरोसा करना आज सबसे बड़ी समस्या है। मुझे जान कर हैरानी हुई कि सेरोगेसी भी इससे जुदा नहीं है। गुजरात को छोड़ दें तो बाकी के अधिकांष ए आर टी सेंटरों के रिकार्ड काफी चौकाने वाले हैं।गुजरात में तो हजारों की संख्या में सेरोगेट मदर जरूरतमंदों को मिल रही हैं लेकिन जब तक सेरोगेट मदर बच्चे को जन्म दे कर उसे माता पिता के हवाले नहीं कर देती है, माता पिता की जान सूखी रहती है। कई बार तो लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी ऐन मौके पर सेरोगेट गर्भ में पल रहे बच्चे के प्रति अपना मोह त्याग नहीं पाती है। भारतीय सिनेमा ने तो ऐसी भावनाओं को खासा कैष कराया है। सच तो यह है कि सेरोगेसी बहुत बड़ा त्याग है। औरत से सभी उम्मीद भी यही करते हैं कि वह समाज के लियेए, परिवार के लिये त्याग करती रहे। बाजारवाद के चलते कुछ लोगों ने इसमें काफी जलालत भी सही है। पूना में तो अब सेरोगेसी के लिये नजदीकी रिष्ते खोजे जाते हैं। हैरान न हो, बेटी और दामाद का अंष नानी के गर्भ में भी पल सकता है। पूना में अधिकांष संतानहीन दंपत्ति अंडे एवं षुक्राणु इक्सी के मदद से अपनी किसी नजदीकी महिला के गर्भ रोपवाना पसंद करते हैं। मुझे इस बात पर यकीन नहीं हुआ तो ए आर टी सेंटर ,मधु जिंदल अस्पताल के डाण् सुनील एवं डाण्अंषु जिंदल ने भी चौकाने वाली जानकारी दी। उनके सेंटर पर कुछ ही महीने पहले एक नानी ने अपने देवते को जन्म दिया। इसे पूरी तरह से गोपनीय रखा गया। दरअसल नानी , भाभाी और बहन से नजदीकी रिष्ता और क्या होगा! इस रिष्ते में कभी एहसान नहीं जताया जायेगा। कभी बच्चे पर हक नहीं जमाया जायेगा। सबसे बड़ी बात है कि ये रिष्ते सेरोगेसी के लिये मोटी रकम भी नहीं मांगेंगे। एक पल के लिये देखा जाये तो सेरोगेसी के लिये बहुत बड़ा जिगरा चाहिए।कुछ तो ऐसे भी मामले प्रकाष में आये हैं कि जहां ए आर टी सेंटर की मदद भी नहीं ली गई, संतान सुख के लिये संबंध भी बनाये गये, भले ही यह भी कापफी जोखिम भरा काम है।

Saturday, March 22, 2008

उस जीने के ऊपर

कबाड़ी बाजार में मुझे पहुँचना था १२ बजे लेकिन में जरा जल्दी आ गई , बाजार का नजारा अलग था, जो वहाँ से गुजरता, उसकी नजरों में हवस तैरती सी दिख रही थी, ऊपर छज्जों पर जो खड़ी थी, उनके भी इशारे हवस को बढावा दे रहे थे, इससे पहले कि मेरा दिमाग कुछ और सोचता , अतुल शर्मा आ गई और बोली, ऊपर चल कर देखना, उसके साथ कुछ और महिलाये भी थी, हम एक जीने के सामने आ गए, कुछ शीशोरे किस्म के लोग हमें घूरने लगे, जीना काफी संकरा था, एक साथ दो लोग चढ़ भी नहीं सकते थे, सो एक एक कर हम ऊपर पहुँचीं, जीना एक छोटे से आँगन में जा कर खत्म हुआ। वहीं आगे एक कमरा था, सजिंदो के सामने हारमोनियम और तबला रखा हुआ था। कमरे की बाहर की तरफ़ छज्जे पर सजी संवरी लड़कियां हमे देख कर सहम गईं। कृष्णा अम्मा ने इशारा किया तो वे भीतर आ गईं। अतुल वहाँ होली खेलने के लिए अपनी टीम के साथ आई थी और मैं कवरेज के लिए। साजिंदों ने साज छेड़ दिया और नेना ने सुर तमन्ना फ़िर मचल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ, उसके बाद..... जिस पथ पे चला उस पथ पे मुझे साथ तो आने दे साथी न समझ कोई बात नहीं मुझे साथ तो आने दे, कृष्णा की नजर लड़कियों पर थी कि वे किसी से बात न करे, फ़िर भी मेने जीनत से पूछा , बाहर की दुनिया देखने का जी नहीं करता है? जीनत ने बिना देर लगाए कहा, देख कर ही तो जहाँ आई हूँ। बाहर की दुनिया ने ही इस जीने की सीडियाँ दिखाई हैं, आपका शुक्रिया , आप लोग जहाँ आए और इस जीने के पार का दर्द जानने की हिम्मत की, मैडम इस जीने से उतरने के बाद रास्ते तो बहुत हैं लेकिन उसकी मंजिल कोई नहीं ,

Monday, March 10, 2008

सरोजा को सलाम

मिलिए सरोजा से.... मेजर सरोजा .... जिसने कामनवेल्थ खेलों में भारत के लिए पहली बार गोल्ड जीता.... इतनी बड़ी उप्लब्दी और जानते कितने लोगे हैं ? शायद बहुत कम लोगों को पता होगा। मैं महिला दिवस पर उससे मिल कर कुछ खास लिखने के मूड में थी। मिल्ट्री अस्पताल के कमांडेंट हरेंद्र ने पहले ही सरोजा को बुला लिया था.... मेजेर सरोजा जूनिफारम में एक सैन्य अधिकारी सरीखी लग रही थी लेकिन चेहरे पर सादगी झलक रही थी। आर्मी डे पर सेना मेडल पाने वाली सरोजा पहली ऑरत है जिसे मेडिकल सेवाओं के लिए बहादुरी पुरुस्कार मिला है। सरोजा ने कुचिपुरी नृत्य से ग्रेजुअशन किया लेकिन उसने कभी सोचा भी नही था की वो एक दिन आर्मी आफिसर बन जाएगी। ऐसा तो कभी भी नही की वो शूटर बनेगी। पहले दिन गन उठाई तो घायल भी हो गई...फिर जिंदगी पता नहीं कैसे चलने लगी । शुटिंग के दौरान मन में एक सपना पलने लगा था, देश के लिए गोल्ड मेडल जीतना है सो पूरा हो गया लेकिन सेना मेडल मिला तो लगा, सेना ने उसकी खेल भावना को मान दिया है। जीवन में ९१ मेडल जीत कर भारत को विश्व की सुरखियाँ दिलाने वाली सारोजा को सलाम ।

Thursday, March 6, 2008

वह पतली फौज्जन

मै जब आर्मी की कालोनी मे पहुची , एक ओरत अपनी दो बेटियों के साथ दरवाजे मे मेरा इन्तजार कर रही थी । वह अनीता थी चरनदास की पत्नी । उसकी कहानी मैं फोन पर सुन चुकी थी लेकिन पता नही कौन सी ताकत मुझे उसके पास खीच लाई। उसे देखते ही उसकी परेशानी का अहसास तो हुआ ही, उसकी बेबसी का विश्वास भी हो गया। मुझे देखते ही वह बोली, 'मैडम जी आप ही कहो, मे बच्चों को कैसे पालू पोसू । चरनदास का होना मेरे लिए बहुत जरुरी है। कम्पनी कमांडर ने उसे इलाज के लिए पुणे भेज दिया है। उसे फार्म १० मे डाल कर कैदी का सा जीवन जीने को मजबूर कर दिया है उसे कोई बीमारी नही है । वह बिल्कुल ठीक है। चरणदास जैसे अस्पताल मे कई फार्म १० की सजा भुगत रहे है। चरणदास को फ़ोन पर बात भी करने की इजाजत नही दी जा रही है। अनिता ने एक बेटी को छाती से लगा दूध पिलाना शुरू कर दिया और दूसरी बेटी को भी गोद मे बिठा लिया । उस पतली फौज्जन को देख कर कौन कहेगा एक सी वर्दी पहनने वाले फोजिओं का पारिवारिक जीवन भी एक सा होता है . आख़िर पतली फोज्जन का इन्तजार कब खत्म होगा.