Sunday, January 25, 2009

जन्म दिन मुबारक इमरोज

कई बातें ऐसी होती हैं जो खास नहीं लगती हैं लेकिन बरसों बाद उनके अर्थ तकदीरी अर्थ हो जाते हैं। एक जगह इमरोज ने लिखा है,
मेरा दूसरा जन्म हुआ
जब पहली मुलाकात के बाद
तुमने मेरा जन्म दिन मनाया
और फिर
मेरी जिंदगी का जश्न भी तुमने ही मनाया
खूबसूरत सोचों के साथ
और कविता कविता जिंदगी के साथ
शामिल हो कार वो भी चालीस साल
आज भी
तेरी वो शमूलियत
मेरी जिदगी में
जिंगदी की सांसों की तरह से जारी
और तेरी मेरी जिंदगी के मेल का वह जश्न भी
इससे से भी सालों साल पहले अमृता ने किसी कमजोर पल में जिंदगी से शिकवा किया
लक्ख तेरे अंबरा विच्चों, दस की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी , ते ओह वी तंद इकहरी
पर सच तो यह है यह इकहरा तार सालों साल गुजर जाने के बाद भी कमजोर नहीं हुआ और अमृता को अपने में लपेटे हुए साथ साथ चलता रहा। जब अमृता जिंदा थी, उस दौर में भी। आज जब अमृता नहीं हैं, तब भी। और हां, कुछ लोगों के साथ कुछ अलग सा घट जाता है। देश के बंटवारे का अमृता के जीवन पर बहुत गहरा असर रहा, यह असर उनके लेखन में भी पढ़ने को मिला। इमरोज का जन्म बटवारे से कई वर्ष पहले हुआ लेकिन वह दिन था 26 जनवरी का दिन। मैंने उनसे वैसे ही एक दिन पूछ लिया, आपका जन्म इतने अच्छे और राष्ट्रीय महत्व के दिन हुआ है, इस पर इमरोज मासूम सी हंसी हंस कर कहते हैं, जब मैं पैदा हुआ था तब 26 जनवरी का कोई महत्व नहीं था, 26 जनवरी का महत्व को तो तब हुआ जब इस दिन देश को गणतंत्र देश का दर्जा दिया गया।मेरा जन्म तो पहले ही हो चुका था। मैंने मन के अंदर ही अंदर कहा, इमरोज, तुम वो नूर हो, जिसकी रोशनी से समाज में बहुत कुछ ऐसा हो गया जिसकी लोग मिसाल देते हैं, देते रहेंगे। तुम अमृता का वो इकहरा तार हो जो न कभी कमजोर था, न कभी कमजोर होगा। तुमने आज भी अमृता को इस तार में लपेटा हुआ है।

Sunday, January 18, 2009

बादलों के महल में सोया है सूरज

चार दिन पहले ही मकर संक्रांति थी। सोचा रसोई में कुछ बना लूं। दो मन हो रहे थे। मन धुंआ धुंआ था लेकिन बात यह भी सता रही थी कि इस दिन का कुछ तो होना चाहिए। सो खीर चढ़ा दी। खीर की खुशबू से सारा घर महक उठा। इसके बाद खिचड़ी के लिये चावल धोए। चावलों पर जरा सा पानी क्या पढ़ा, कच्चे चावल भी महकने लगे। चूल्हे पर एक तरफ खीर बन रही थी तो दूसरी ओर खिचड़ी।दोनों में कड़छी चल रही थी। पतीले में कड़छी चलाते हुए लगा कि उंगलिये के जरिये धीरे धीरे कड़छी में मैं उतर रही हूँ । अब पतीले में खीर नहीं, यादों के बवंडर हिल रहे है। मन अंधेरे गारो में उतरने की गुस्ताखी पर उतारू हो गया। आज इसने ऐसी जुर्रत क्यों की? अपने आप को चिकोटी काटी तो देखा सामने बादल छाये हुए हैं। मन गारों से बचा तो बादलों में खो गया। बादलों के पार वाले महल में सूरज सोया हुआ है। वहां पहुंचने के लिये कोई रास्ता नहीं, न कोई सीढ़ी, न दरवाजा, न हीं खिड़की। जो रास्ते दिख भी रहे हैं, वहां पहुंचने के लिये बहुत संकरे हैं। खिचड़ी और खीर को पतीले से निकाल कर ढोंगे में रख दिया। साथ ही सूरज की चाहना को भी तह कर संभाल दिया।