Saturday, December 4, 2010

बच्चे बने रहना कितना अच्छा है न .......

पिछले एक महीने से आरती मेरे साथ थी। घर में बड़ा खुशनुमा माहौल बना रहा क्योंकि अंगद की शैतानियां हर समय मुझे गुदगुदाती रहती। बीच बीच में आरती कहती रहती, गैरी की शादी के बाद पूना जा कर शिफ्टिंग करनी है। उस समय मैंने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन कल उसका फोन आया। 'मां, आज अंगद की टीचर अंगद के स्कूल छोडऩे से बहुत दुखी हो रही थी। टीचर ने अंगद की बुक्स वापस कर दी हैं। उसके स्कूल के दूसरे सामान भी वापस कर दिए है ताकि वह अगले स्कूल में काम आ सकें। मेरी सहेलियां भी मेरे जाने की खबर से दुखी हो रही है। मेरा मन बहुत भारी हो रहा है।Ó यह कहते हुए उसकी आवाज भारी हो रही थी। अंगद तो बच्चा है, उसे किसी के दूर और पास रहने से कोई अंतर नहीं पड़ता, बस आरती और टिंकू से चिपका रहना उसे पसंद है। लेकिन आरती भी अपनी सोसायटी के परिवारों से दूर जाने से कहीं न कहीं बहुत दुखी हो रही है। उसे पिछले तीन सालों में पूना में अपना घर बड़े मन से सजाया। मैं भी एक बार देख कर आ चुकी हूं। उसका अपना सर्किल भी बना हुआ है जिसमंे कभी बर्थडे पाीर्टी तो कभी पार्टी की दूसरी वजह से लेडीज की गेट टू गेदर चलती रहती है। अब टिंकू की पोस्टिंग मुंबई में हो गई है तो उन लोगों को मुंबई शिफ्ट होना पड़ा रहा है। मैं आरती के मनोस्थिति समझ सकती हूं। उसके हाथों से सजाया हुआ उसका घर वहीं रहा जायेगा। वहां की एक एक चीज उसने शौक से तैयार करायी थी। अब वहां कोई किराएदार रहेगा। यह भी मजबूरी है। वे खुद मुंबई में किराए के फ्लेट में रहने जा रहे हैं। अपने प्यारे से घर और दोस्तों से दूर चले जाने का दर्द आरती को परेशान कर रहा है। आरती मेरी बहुत प्यारी बच्ची है। मेरी भूरे बालों वाली बेटी जिसने हमारे घर को परिवार को खुशियां दी है अंगद को हमारी जिंदगी में ला कर। उसके मन का दर्द हालांकि कुछ दिन बाद कम हो जायेगा या फिर यह भी हो सकता है कि अच्छे दोस्त मिल जाने से रहेगा ही नहीं लेकिन फिलहाल मुझे आरती का दर्द अपने सीने में महसूस हो रहा है। आज आरती और टिंकू पैकर्स के साथ बिजी हैं और अंगद भी मां से कह रहा है, मामा, पापा गोट न्यू कार एंड न्यू होम .....बच्चे बने रहना कितना अच्छा है न ।

Tuesday, August 31, 2010

इमरोज की नजर में अमृता

जब तक सूरज आसामन में रहता है, अमृता भी आसमान में उड़ती है। निडर, मनमर्जी की रवानगी से भरपूर और दुनिया बेपरवाह सी दिन के छोटे से छोटे और दुनिया के बड़े से बड़े धमाके सेोपरवाह। दिन का अधिकांश हिस्सा वह अपने साथ रहना चाहती है। रहती भी है, लिखते हुए , पढ़ते हुए। लेकिन रात उतरते ही वह अपने आप में उतर जाती है-ए क आम औरत की तरह से कमजोर, डरपोक, निराश और मोहताज सी। सब के लिऐ फिक्रमंद। छोटे सी आवाज पर सहम जाती है। सुहब उठते हुए उसका चेहरा बुझा बुझा सा और थका हुआ सा लगता है। जैसे वो सारी रात अंधेरे की कोई गुफा पार करके आ रही हो और वो भी अकेली। दिन चढ़ने के साथ ही उसके चेहरे की चमक भी गहरी होने लगती है , जैसे धूप ने अपने रंग उसके हवाले कर दिए हों। सुबह की किरणों में उसकी खुदमुख्त्यारी का यह हाल होता है कि दरवाजे पर पहली घंटी करने वाला भी उसके गुस्से का शिकार हो जाता है। उसके मन के एकांत को कोई खटखटा दे तो यह खटका उसकी जिंदगी में हो जाता है। उसे तो रसोई मे बर्तनों के बजने की आवाज भी नहीं सुहाती।बरतनों केबजने पर वह कहती है, क्या हम फल नहीं खा सकते। न रोटी खाएं,नही bartan झूठे हों, न वोाजें। उस समय उसकी सेवा करने वालों का सलाम भी उसे बुरा लगता है। जमादार का हाथ जोड़ना उसे बुरा लगता है। शायद यह उसकी खुदमुख्तियारी का तकाजा है कि न वो किसी के सामने हाथ जोड़ती है न उसे हाथ जोड़ने वाला अच्छा लगता है। सादकी का आलम यह है कि उसे न नहाने का होश है न ही मेकअप की परवाह। कपड़े बदलने का भी होश नहीं रहता है। नए कपड़े खरीदने की भी वह नहीं सोचती है। जो कमीज उसे पसंद आ जाती है बस उसकी खैर नहीं। हर दिन उसे ही पहना जायेगा। उसके उधड़ने पर उसे बार बार बखिया लगाने की हद कई बार तो किसी पार्टी पर इस लिए नहीं जाती है क्योंकि उसे कपड़ेादलने पडें़गे। एक अजीब तबियत -रोटी चाहे बसी हो या ताजी, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। बासी रोटी पर आम का आचार भी चलेगा। अंदाज होता है कि एक फकीरी उसकी रंगों में बहती है। पर कभी कभी उसकी ताीयत राजा की माफिक हो जाती है। एक दिन हम चाय पी रहे थे, चाया पीते पीते उसकी नजर एक खूबसूरत मकान पर गई, उसने में हुकुम के अंदाज ने कहा, जा कर इस मकान की कीमत पूछ कर आयो। जवाा दिया,बहुत अच्छा। उसने क बार ऐसा ही किया। करती है तथा करती रहेगी। कानों में सोने की बाली आधे घंटे से ज्यादा नहीं पहन सकती। मैंने रइस फकीरनी का भेद पा लिया। हीरा मोती नीलम और पुखराज उसके लिए नहीं बने हैं। कनॉटप्लेस में हीरों की दुकान के सामने से गुजरती है, उसकी बादशाहत तबियत उसे दुकान के अंदर खींच लेती है। हीरे मोती, पुखराज और ऐसे ही कीमती पत्थर वह देखती है तो देखती ही रह जाती है। उस समय उसका चेहरा जगमगाने लगता है हीरों से भी ज्यादा। वैसे उसने खरीदा कुछ भी नहीं है। उसे पता है कि यह जेवर और हीरे मोती उसके लिए नहीं है।अगर कोई जेवर वह पहन भी लेती है तो शीशे के सामने जा कर कहती है, ये तो मैं नहीं हूं, और उस समय वह जेवर उतार कर रख देती है। उसे अपना चेहरा खुद को ही पहचान में नहीं आता है। कभी घड़ी पहनती थी लेकिन आ वक्त देखना ही नहीं है्र सो घड़ी भी नही पहनती। वक्त मेरे से पूछ लेती है। तसुर से माला माल यह शायरा अगर सचमुच अमीर होती तो पता नहीं, कितने सुंदर घर और हीरे मोतियों का मालकिन होती। ये फकीरनी नाजुक मिजाज भी बहुत है तो पोजेसिव भी। इसके मकान में कोई भी कील तक नहीं गाड़ सकता है। अगर किसी ने ऐसा करने की कोशिश की तो ये जख्मी शेरनी की तरह से उस पर टूट पड़ती है।

Wednesday, July 28, 2010

दिल डरता है जवाबों से....

सवाल बहुत हैं ...... पर दिल डरता है जवाबों से..... कहीं जवाब ये न हो....... कहीं जवाब वो न हो...... इसी ये और वो में ....... जिंदगी बसर हुए जाती है.......... पर सवाल हैं कि ....... साथ साथ चलते हैं........ कांटों की चुभन सहते हैं....... जवाबों का डर सहते हैं...... पर अपना वजूद नहीं खोते ....... मेरे साथ साथ चलते हैं.......

Friday, July 23, 2010

बिरहा के सुल्तान शिव तुम्हें लूना याद करती है ........

दोस्तों , समाज में बेमेल विवाह हर दौर में होते रहे हैं , अभी भी जारी है। कभी किसीोटी को मजाूरी में तो किसीोटी को जानाूझ कर तिगुनी उम्र के मर्द के साथ जोड़ दिया जाता है। चंो की पहाड़ियों में रहने वाली लूना ऐसा ही चरित्र है जिसे अपनी कलम से कई कलमकारों ने छूने का प्रयास किया है। दरअसल, लूना को उस व्यक्ति के लड़ बांध दिया जाता है जिसका बेटा लूना के बराबर का है। लूना के पिता की भी मजाूरियां रहीं होंगी लेकिनोमेल विवाह ने लूना को कैसे हर दिन तोड़ा, इसका जिक्र जा काव्य रूप में पंजाा के कवि शिव कुमाराटालवी ने किया तो वह पजाां की लोकगाथा साान लोगों की जुाां वर चढ़ गया। आज शिव कुमाराटालवी का जन्म दिन है। लूना का जिक्र मैं इस लिए कर रही हूं क्योंकि शिव ने एक मर्द हो कर भी लूना के दर्द को समझा और उसे शदों से अपने काव्य में पिरो दिया। लूना का दर्द शिव के शदों इस तरह से उभरा कि लूना काव्य ग्रंथ ने शिव को रातों रात कवियों की पहली कतार में खड़ा कर दिया। शिव को लूना के लिए 1965 में साहित्य एकेडमी पुरस्कार भी मिला। मात्र 28 वर्ष की उम्र में साहित्य एकेडमी अवार्ड लेने वाला शिव पहला कवि है। आ हम बात करते हैं लूना के दर्द की, जो कभी उसके दिल में ओने बाबुल के लिए उठा तो कभी बाबुल की रसोई के चूल्हे में जला। लूना को शिव ने बड़े अनोखे ढंग से पेश किया है। लूना के दर्द को उजागर करने के लिए शिव ने लूना से ही उसकी सखियों को संोधित करवाया। कभी शादी के रिश्ते कीाात शुरू होने पर तो कभी विवाह के मौके पर। कभी लूना के पति के साथ साथ रहते रहते । आज शिव को याद करते हुए मैं कुछ उन पलों का अनुवाद प्रस्तुत करने जा रही हूं जहां लूना का ही नहीं हर उस औरत का दर्द समझा जा सकता है जो लूना जैसी परिस्थितियों से गुजरी है। ----------- सखियो...... मैं आग चली परदेश...... आग चली परदेश...... एक छाती में हाड तपता....... एक छाती में जेठ........ ओ मैं आग चली परदेश....... आग की उम्र में....... हर आग........ ja baithati है pardesh...... हर आग के....... ाााुल के चूल्हे....... सदा न रहता उसका सेक....... हर आग के......... ाााल की जायी....... चली जाए परदेश....... यह क्या आग के लेख....... सखियो....... ये क्या आग के लेख...... हर घर की कंजक....... पर जा आती है आग की रूत....... हराााुल...... वर खोजन निकले...... हर आग सा मेल...... हर आग ही छोड़ जाए....... सखियो...... हराााुल का देश....... लगा हाथों पर जलती मेहंदी...... पहन का आग का भेष...... मैं आग चली परदेश...... पर सखियो....... मैं कैसी आग हूं........ कैसे मेरे लेख....... तो मुख का सूरज जलता...... दूजा जले पांव तले....... तीजीौठी........ देह के आंगन में...... फिर भी सखियो......... ाुझता जाता...... इस अगन का सेक........ जोाााुल वर........ खोज लिया....... वो न आया मेरे मेल....... मैं आग चली परदेश...... सुनो सखियों........ आग के दर्द को कौन सुने...... आग के दर्द को कौन पहचाने....... आग के दुख को जाने कौन...... सखियो...... जा भी आग जन्म लेती है...... आग की अांरी रो पड़ती है........ कोख में सोची थी पुत्र की खुशाू....... पर आग जन्मी....... आग देख अमड़ी का दूध सूखे......... और कलेज में होल उठे ...... ाााुल की पगड़ी होतीोरंग...... ...... कितनीाुरी सोच पड़ती है...... जन्म दिहाड़े से...... द्वार सेािदा करने की....... चिंता पड़ती है...... यहां लूना अपने आप को आग कहती हुई अपनी aapa biti कह रही है। सच, उसके दर्द कोई थाह नहीं है लेकिन इन पंक्तियों को आप क्या कहेंगे जिसमें शिव कुमार ने शायद अपना भी दर्द जोड़ दिया है। ----------- ओ सखियो...... री कुजिओ (चााियो)....... मुझे ऐसा ताला मारो....... न वो खुले...... न वो टूटे....... चाहे लाख हथौड़े मारो...... ---------- शिव की लूना पढ़ कर लूना का दर्द हर औरत के दिल में कुदालें चलाता है। शिव कुमार के जन्मदिन पर सभी कलमकारों का शिव को नमन।

Saturday, June 5, 2010

देवता तो हमारे अन्दर ही बसते हैं ....नजर की जरूरत है

काया विज्ञान का एक बहुत प्यारा सा हवाला एक जगह मिलता है . जब परमात्मा ने सब देवता पैदा कर लिए तो उन्हें धरती पर रहने के लिए भेज दिया .....वहां रहने के लिए उन्हें सुन्दर स्थान चाहिए था . आहार भी चाहिए था . वे फिर लौट कर परमात्मा के पास गए और अपनी समस्या उनके सामने रखी ......तो परमात्मा ने इंसानों की ओर इशारा करते हुए कहा ....तुम सब वहीँ रहो और अपना स्थान खोज लो. परमात्मा का आदेश पा कर देवता ने वाणी बन कर मुख में परवेश किया.....वायु बन कर प्राणों में. सूर्य देवता ने आँखों में स्थान ग्रहण किया . दिशा देवता ने कानों में तथा ब्रहस्पति देवता ने काया के रोम रोम में और चन्द्र देवता ने ह्रदय में अपना स्थान बना लिया .......देवता इन्सान की देह में ही वास करते हैं.....यह भी सच है की सही भोजन न करने से ये तत्व कमजोर पड़ जाते हैं और देवता मूर्छित पड़े रहते है ....... __________________________________ आज जब में ऑफिस के लिए विशवविद्यालय के सामने से गुजर रही थी तो मुझे वहां किताबों का एक स्टाल दिखा ..अमृता प्रीतम की लिखी हुई किताब "अक्षरों की अंतर्ध्वनि" मुझे स्टाल पर मिल गई.....यह किताब जून १९९० में सूचना एवं प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी.....मात्र १५ रूपये की ये किताब मेरे लिए बेशकीमती है ...... काया विज्ञान की कुछ पंक्तियाँ आपसे शेयर कर रही हूँ ......उम्मीद करती हूँ ......आपको पसंद आएँगी .

Sunday, April 11, 2010

एक याद ....एक दीप ....एक टीस....

मेरे साथ ही क्यों , अकसर कवरेज कर रहे मीडिया परसन को ऐसी दिक्कत आती होगी , जैसे कि शनिवार की शाम को मैंने फेस की।
10 अप्रैल की शाम को विक्टोरिया हादसे की चौथी बरसी का आयोजन था। शहर भर के लोग हादसे में चले गए लोगों की आत्मा की शांति के लिए एक दीप समाधिस्थल पर जलाने के लिए पहुंचे हुए थे। वहां वो लोग भी थे जिनके घर से परिजन हमेशा के लिए जुदा हो चुके थे। अपनों को गंवा चुके लोगों की आंखों के आंसू थे कि थम नहीं रहे थे। बेहद गमगीन माहौल में मैं एक पल को भूल गई कि मुझे इस मौके की कवरेज भी करनी है। मन बेहद भारी हो उठा। मेरी बगल में आंसू पौछती महिला मुझसे बोली, क्यांे आप इस दिन को अखबार की सुर्खियां देते हों। क्यों हमारे जख्मों को कुरेदते हो, प्लीज हमें हमारे दुखों के साथ जीने दो।मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसकी बात में क्या सफाई दूं, क्या जवाब दूं।
तभी मेरी नजर कुछ छोटे बच्चों पर गई जो समाधिस्थल पर फूल चढा रहे थे, कैंडल जला रहे थे। कभी नही आने वाले इनके परिजन जरूर इन्हें देख रहे होंगे कि ये बच्चे सच्चे मन से उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे हैं।

Sunday, April 4, 2010

कोई अधिकार नहीं..... कोई उलाहना नहीं

तुम्हें अगर मेरी जरूरत होती तो तुम मुझे इन राहों पर अकेली न छोड़ते । एक लंबे काल तक मैं अपने आप से ही बातें करती रही। कभी तुम्हारे भीतर जा कर सवाल करती तो कभी अपने अंदर से जवाब तलाषती। पर मेरी तुम्हारी चुप सी बातें मेरे अंदर जवान होती और कुछ समय बाद वहीं दम तोड़ देतीं। अरसा गुजर चुका है। अब तुम मेरे लिए ऐसे हो गए हो जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं, कोई उलाहना नहीं। मोहब्बत तो मैं अब भी तुम से उतनी ही करती हूं पर इस तरह से नहीं जैसे कोई औरत एक मर्द से करती है, बल्कि इस तरह से जैसे कोई इंसान रब से करता है। तुम इसे समझ सकोगे या नहीं, नहीं जानती ..........

दरअसल , मैं अंदर से और ----बाहर से और -----हो कर जीना नहीं चाहती, इसी लिए मैंने उस गांठ को खोल दिया है जिसके अंदर रह कर मैं कुछ और रहती हूं, बाहर रह कर कुछ और। मैं आंखें बंद कर के कुछ और सोचती हूं और आंखें खोल कर कुछ और देखती हूं। ऐसी गांठों को खोलना आसान नहीं होता है लेकिन अब मैंने इन्हें खोल दिया है, कई warsh लगा दिए इस गांठ को खोलने me .......अब जो मैंने किया है, वह केवल इस लिए,ताकि मैं किसी और से , खुद से झूठ न बोलूं ....... तुम्हारे साथ गुजारा हुआ वक्त अब मुझे सपने में भी नहीं सोचना है। यह सब मैं अपने लिए कर रही हूं। अपनी आत्मा को दागी होने से बचाने का एक प्रयास है। औरत का इससे बड़ा दुख और कुछ नहीं हो सकता है कि उसके सपनों को उसकी जुबान के सामने मुकरना पड़े। मुझे दुनिया के सुखों की चाह नहीं हैं। मेरे मन के सुख मेरी तरह से कुछ अनोखे हैं। षायद तुम समझ पाते । समाज के कानून से लिथड़ी हुई त्यौरियां मैं सहन नहीं कर सकती। आज तुम बेखबर हो कर सोए हुए हो। ऐसा लगता है जैसे तुमने कालों के बाद ऐसी नींद ली है। तुम्हारा चेहरा कह रहा है, तुमने सालों बाद भूख का व्रत तोड़ा है क्योंकि एक भरपूरता चमक रही है। ----------------- दोस्त की डायरी के कुछ अंश

Wednesday, March 31, 2010

मुद्दत बाद .....उम्रें ठहर गईं

मुद्दत बाद ......उम्रें ठहर गईं
उनकी नजरें मिलीं .......एक दूसरे को देखा , जैसे तपती गर्मी में ठन्डे पानी के घूंट भर लिए हों ।
पर ये क्या , उनकी प्यास तो वैसे ही धरी हुई थी ।
वो दिन , वो घडी , वो पल ऐसे गुजरा जैसे वो मेले में हैं ..... मेले के हिंडोले में अपनी उम्रों को बैठा कर हिलोर दे रहें हों । और वो दोनों उस पल, उस घडी और उस दिन के देनदार बन गये । अगले ही पल उन्हें हिंडोले से उतरना था । मेले से चले जाना था । उन्हें गम नहीं था । उन्होंने मेला मना लिया था । मेले की मिठाई चख ली थी । अब तो उन्हें अपने-अपने अरमानों की तह लगा कर रखनी थी।
फोटो गूगल से साभार

Monday, March 29, 2010

अपनी आंख के श्राप को क्या कहूँ .....

ईश्वर की ऑंख ईश्वर के चेहरे पर हो तो वरदान है, लेकिन इन्सान के चेहरे पर लग जाए तो शाप हो जाती है .....अपनी आंख को क्या कहूँ ........
कभी कभी ये श्राप मेरी आंख को लग जाता है ..... कई बार ......
उस दिन भी वही हुआ ......
उस दिन .......
थाने के कंट्रोल रूम में बेठी तीन लड़कियां ......मीडिया के फ्लेश बार बार क्लिक किये जा रहे थे .....खाकी वर्दी वाले ने पूछा ......धंधा करती हो क्या ?एक लड़की ने कहा .... नहीं साहब ....में तो अपनी मौसी के पास रहती हूँ बाकी की दो लड़कियां रोये जा रहीं थी .....वो तीन लड़कियां .....जो १४ साल से भी कम की रही होंगी .......सवाल पे सावल .....हर जवाब में आंसुओं का सैलाब .........
और शाम को उन्हें नारी निकेतन भेज दिया गया .......कुछ दिन बाद मौसी उन्हें से ले गई उसी दुनिया में...... जहाँ जिस्म के सौदागर आते है

Friday, March 26, 2010

दो सहेलियां ....एक देह में रहती हैं

दो सहेलियां

एक दूसरे की साथी
दो सहेलियां
एक , एकांत में जागती है
एक ,एकांत में सोती है
सोने वाली जागने वाली से ऑंखें चुराती है
जागने वाली सोने वाली को उलाहना देती है
सोती , सोती क्या है
ऑंखें चुराती है
जागती , जागती क्या है
खुली आँखों से जंगल उगाती है
उन्हीं जंगलों में घूमती है
दो सहेलियां
एक ही देह में रहती हैं
साथ साथ
दुःख कुरेदती हैं

Thursday, February 18, 2010

उसकी प्यास न पानी बनी न आग

उस रात .....................

वो अकेली नहीं ...........................

उस के साथ रात भी जली थी .......................

मैंने उसे आग अर्पित की ..........................

वो और भी सर्द हुई ................................

समन्दर की बात की .............................

तो वो और भी खुश्क हुई ................................

उस की प्यास न पानी बनी ................................

ना आग .....................................

उसके दोष अँधेरे नहीं .................................

रौशनी थे ..............................

उसकी भटकन केवल रिद्हम थी ............................

जब साज निशब्द हुए ..................................

तो वो मीरा बनी ...................................

राबिया हुई ...................................

आखिर .........................................

मंदिर का प्रसाद हुई .........................................

मस्जिद की दुआ हुई ...................................................

पत्र का शीर्षक क्या होगा ?

तुम्हारी किताब छपी ......तुम अरसे तक मुझे खोजती रहीं ......किताब देने के लिए। और फिर किताब दी भी। तेरी मेरी पहचान बस इतनी ही थी। छोटी सी। मै अपनी किताब की समीक्षा और टिप्पणी के लिए किसी महिला आलोचक / साहित्यकार चाहता था । मेरे दोस्त ने तुम्हारा जिक्र किया। तुमने किताब का प्रूफ पड़ कर टेलीफोन पर ही चार पंक्तियाँ लिख दी। मैंने वो चार पंक्तियाँ श्रृंगार समझ कर किताब में सजा ली। बस ऐसी ही थी हमारी जान पहचान। मेरी क्या ओकात ....मुझे कोई कम ही अपनी किताब देता है । तेरी किताब हाथ आते ही पड़नी शुरू कर दी । जैसे जैसे पड़ता गया....एक जख्मी रूह सामने साफ होती गई जिसके हाथ में शब्द और अहसास की तलवार पकड़ी हुई थी । रूह के सामने मैदाने जंग था और पीछे छोड़ आई थी एक संसार । शायद ऐसे ही पलों ने उसे शायरा बना दिया था और खुले आसमान में उड़ने शक्ति थमा दी थी । बेटियां चाहे हमेशा ही अपने दुःख दर्द माँ के साथ सांझे करें लेकिन कभी कभी दुखों की लकीर बाप रूपी दोस्त को भी चुभ जाती है दुखों की इस लकीर ने ही तुम्हारी नज्मों को चार चाँद लगाये हैं । मुझे पता नही ...मैं तुझे क्या आशीर्वाद दूँ...अतीत के पल सपने बन जाएं ......भविष्य चमक जाए ....अपने मोह में गूँथ कर मै यही आशीर्वाद देता हूँ .....तुम इसे जैसा चाहो ......इस्तेमाल कर लो एक पत्र की बात

Tuesday, January 26, 2010

इमरोज ......इक लोकगीत सा

एक साया जो सपने में उतरने लगा था....कुछ पहचान नहीं आ रही थी कि किसका साया है। दिखायी देता है कि एक अकेला मकान है, आसपास में कोई बस्ती नहीं है.....उस मकान की दूसरी मंजिल पर एक खिड़की है जिसमें कोई खड़ा है कंधों पर ‘ााल डाल कर। खिड़की के पास रखी मेज पर बड़ा सा कैनवास है जिस पर पेंटिंग बनी हुई है, पर दिखायी नहीं दे रही है। यह अमृता का सपना है जो उन्हें कई वशोZं तक आता रहा...... अमृता को जब इमरोज मिले तो इस सपने का अर्थ समझ आया लेकिन फिर कभी ये सपना भी नहीं आया। मुझे याद है जब मैं पहली बार इमरोज से मिली थी, उस समय अमृता जी जीवित थी। इमरोज जी उस दिन ‘ााल ओड़े हुए थे। अमृता जी का सपना अचानक मेरी सोचों पर उतर आया। इमरोज जो अमृता की जिन्दगी में एक ऐसी बहार बन कर आए जिसकी खुशबू आज भी बरकार है। आज इमरोज का जन्मदिन है। अपनी इस नज्म में इमरोज अपने आपको कुछ तरह से बयान करते हैं। मैं एक लोक गीत बेनाम हवा में खड़ा हवा का हिस्सा जिसे अच्छा लगे वो याद बना ले और अच्छा लगे तो अपना ले जी में आए तो गुनगुना ले मैं इक लोकगीत सिर्फ इक लोक लोकगीत जिसे नाम की कभी दरकार नहीं

Tuesday, January 5, 2010

अब वो शांत था ......

उस दिन बेहद कोहरा था । कोहरे से भरे बादल बार बार गाड़ी के सामने वाले शीशे से टकरा रहे थे लेकिन उसे मंजिल पर पहुचने की बहुत जल्दी हो रही थी । गाड़ा कोहरा गाड़ी को स्पीड में आने ही नहीं दे रहा था । सामने एसा लग रहा था जैसे किसी ने धुयाँ धुयाँ छोड़ दिया हो । तभी कोहरे का एक बादल आया और उसने सड़क की सफ़ेद पट्टी को पूरी तरह से दबा दिया ...... गाड़ी को ब्रेक लगाने पड़े ...... इसी बीच मोबाईल बज गया। उसने काल सुनने के बाद गाड़ी मोड़ ली । अब वो शांत था ।