Sunday, July 13, 2008

बोल्ड लेखन की मलालत

अभी चार दिन पहले ही रचना ने एक कविता पोस्ट की थी ´नारी का कविता ब्लाग` पर, ´इस लिये मुझे फक्र है कि मैं दूसरी औरत हूं` कविता ने बहुत अच्छी बहस छेड़ दी। अब तक इस पर तीस से अधिक कमेंट आये जो अपने आप में एक रिकार्ड है। कमेंट ने यह भी साफ किया कि समाज की सोच में परिवर्तन तो है लेकिन हम सच से मुंह फेर लेते हैं। खैर , सबजेक्ट ऐसा रहा जिसे पढ़ कर सभी ने इस पर बहुत कुछ सोचाकिसी ने इसे समाज को तोड़ने की बात से जोड़ा तो किसी ने इसे जमाने की बदलती तस्वीर कहा। कुछ कमेंट पर मुझे अफसोस भी हुआ, जिसमें देह को सोंपने के सवाल पर भी तंज कसे गये। रचना की बोल्डनेस पर मुझे इस्मत चुगतायी की याद आ गई। उसे लिहाफ के लिये काफी मलालत झेलनी पड़ी थी, बाद में तो उसे लाहौर कोर्ट में भी प्रस्तुत होना पड़ा। यहां में जिक्र कर दूं कि इस्मत आपा को बोल्ड लेखन की मलालत क्यो झेलनी पड़ी। उन्होंने ´लिहाफ` की किरदार जान बेगम के बारे में वह सब कुछ सच सच लिख दिया जिसे उस दौर में लिखना तो क्या, आपस में चर्चा करना भी जुर्म था। जान बेगम जवान थी, खूबसूरत देह की मालकिन लेकिन उनके पति उनकी जवानी को देखते ही नहीं थे। फिर वे अपनी नौकरानी रब्बो के साथ मस्त हो गई। जान बेगम और रब्बो के बीच जो रिष्ता बना, उसे इस्मत आपा ने अपनी कहानी ´लिहाफ` में लिखा। दो औरतों के बीच रिष्ते की बात आज भी समाज को हजम नहीं होती है तो उसे दौर में तो कोई सवाल नहीं पैदा होता है। इस कहानी पर बहुत रोला मचा लेकिन इस्मत को तो कुछ अलग करने का जुनून था। वे लाहौर कोर्ट में प्रस्तुत हुई, उनका साथ उस समय केवल मोंटो ने दिया। रोले रप्पे की बात आई गई हो गई लेकिन उस कहानी की किरदार जान बेगम का निकाह दूसरी जगह हो गया और जब इस्मत को वह एक पार्टी में मिली तो उनकी गोद में एक बच्चा भी था। वह पहले भी पूर्ण और खूबसूरत दिखायी दी तो इरस्मत को लगा कि उनकी कहानी को सार्थकता मिल गई। इसी के साथ एक और लेखिका का जिक्र भी मैं करना चाहूंगी, वह है krishna sobhati । इन्हें भी अपने लिखे पर काफी कुछ सुनने को मिला जब इन्होंने ´मित्राो मरजानी` को लिखा। मित्राो यानि सुमित्राारानी , एक सभ्य परिवार की बहू ,जिसे बहू बने रहने के तौर तरीके पसंद नहीं हैं। उसका खुलापन ससुराल में किसी को एक आंख नहीं भाता है। इसी लिये वह घर परिवार में तो विवादास्पद बनी बाद में उसे हिंदी कथा जगत में भी काफी जलालत का सामना करना पड़ता है। मित्राों का चरित्र उस समय भले ही कितने भी विवादों में रहा हो लेकिन सोचने की बात यह है उसमें ममता, मां बनने की चाहत और वासना-सरिता अगर बहती है तो उसमें सोबती का क्या कसूर है। रचना , अब समय बदला है लेकिन विद्रोही कलम ने तो सालों पहले सोच से परते उठानी प्रारंभ कर दी थी। तुम्हारी कलम नारी के सभी पुराने बिंबो को खिलाफ नया आकशZण है। ये तुम्हारी कविता की तारीफ नहीं है, न ही कोई कमेंट, यह तुम्हारी लेखनी की बोल्डनेस है जिसे मैंने चैट के दौरान तुमसे सांझा किया था। तुमने समाज की ऐसी दुखती रग पर प्रहार कर दिया है ,दूसरी औरत के फक्र को जाहिर कर जिसे कोई सहन नहीं पाया आसनी से।

Saturday, July 12, 2008

पापा के पचास दिन

पचास दिन के बाद डा तलवार रिहा हो गये। आरूिश के पिता डा तलवार। एक खबर, लेकिन इस खबर के पीछे का सच कोई जान नहीं पायेगा। अब कोई कहेगा कि यू पी पुलिस को जवाब देना चाहिए। कोई कहेगा कि सीबीआई ने बहुत अच्छा किया है। इस पूरे प्रकरण में मुख्य बात है वो दर्द जो डा नुुपुर ने बेटी को खो देने के बाद अकेले झेला क्योंकि डाक्टर तलवार भी जेल में थे, उधर डाक्टर तलवार ने भी इस दुख को अकेला झेला क्योंकि बेटी को तो खो दिया, साथ ही बेटी की हत्या का आरोप भी झेला। तलवार दंपत्ति की इकलौती संतान थी आरूिश। ‘ााष्विवाह के चौदह साल के बाद आरूिश का जन्म कई इलाजों , मन्नतों और दुआयों के बाद हुआ था। आरूिश टेस्ट ट्यूब बेबी थी, मात्रा चादह साल की, जिसने दुनिया को ठीक से देखा भी नहीं था। उस पर क्या क्या नही दिखाया गया मीडिया में। इसमें मीडिया का रोल भी संवेदनाअों से परे चला गया। कभी आरूिश के बलात्कार की नई खोज की खबर तो कभी डाक्टर तलवार के डाक्टर दुरानी के साथ नाजायज संबंधों की खबर। आखिर होड़ यह थी कि कौन कितनी पहले खबर प्रसारित करता है। किसी ने यह नहीं सोचा कि सामान्य बाप अपनी बेटी को क्यों मारेगा? वह बेटी जो चौदह सालों के बाद उन्हें नसीब हुई। किसी को यह समझ नहीं आया कि आरूिश कोई बड़ी गलती भी करती तो भी डाक्टर तलवार उसे मारना तो क्या, डांटते भी नहीं। जब से डाक्टर तलवार को सीबीआई ने आरोपों से बरी कर दिया , उसी पल से सारी खबरों में डाक्टर तलवार के प्रति अपनापन दिखने लगा। सवाल यह है कि वो पचास दिन तलवार दंपत्ति के जीवन में कैसे वापस आयेंगे जो उन्होंने मानसिक यातना में गुजरो है। कभी मान को ठेस तो कभी मन को ठेस।