Sunday, April 11, 2010

एक याद ....एक दीप ....एक टीस....

मेरे साथ ही क्यों , अकसर कवरेज कर रहे मीडिया परसन को ऐसी दिक्कत आती होगी , जैसे कि शनिवार की शाम को मैंने फेस की।
10 अप्रैल की शाम को विक्टोरिया हादसे की चौथी बरसी का आयोजन था। शहर भर के लोग हादसे में चले गए लोगों की आत्मा की शांति के लिए एक दीप समाधिस्थल पर जलाने के लिए पहुंचे हुए थे। वहां वो लोग भी थे जिनके घर से परिजन हमेशा के लिए जुदा हो चुके थे। अपनों को गंवा चुके लोगों की आंखों के आंसू थे कि थम नहीं रहे थे। बेहद गमगीन माहौल में मैं एक पल को भूल गई कि मुझे इस मौके की कवरेज भी करनी है। मन बेहद भारी हो उठा। मेरी बगल में आंसू पौछती महिला मुझसे बोली, क्यांे आप इस दिन को अखबार की सुर्खियां देते हों। क्यों हमारे जख्मों को कुरेदते हो, प्लीज हमें हमारे दुखों के साथ जीने दो।मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसकी बात में क्या सफाई दूं, क्या जवाब दूं।
तभी मेरी नजर कुछ छोटे बच्चों पर गई जो समाधिस्थल पर फूल चढा रहे थे, कैंडल जला रहे थे। कभी नही आने वाले इनके परिजन जरूर इन्हें देख रहे होंगे कि ये बच्चे सच्चे मन से उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे हैं।

Sunday, April 4, 2010

कोई अधिकार नहीं..... कोई उलाहना नहीं

तुम्हें अगर मेरी जरूरत होती तो तुम मुझे इन राहों पर अकेली न छोड़ते । एक लंबे काल तक मैं अपने आप से ही बातें करती रही। कभी तुम्हारे भीतर जा कर सवाल करती तो कभी अपने अंदर से जवाब तलाषती। पर मेरी तुम्हारी चुप सी बातें मेरे अंदर जवान होती और कुछ समय बाद वहीं दम तोड़ देतीं। अरसा गुजर चुका है। अब तुम मेरे लिए ऐसे हो गए हो जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं, कोई उलाहना नहीं। मोहब्बत तो मैं अब भी तुम से उतनी ही करती हूं पर इस तरह से नहीं जैसे कोई औरत एक मर्द से करती है, बल्कि इस तरह से जैसे कोई इंसान रब से करता है। तुम इसे समझ सकोगे या नहीं, नहीं जानती ..........

दरअसल , मैं अंदर से और ----बाहर से और -----हो कर जीना नहीं चाहती, इसी लिए मैंने उस गांठ को खोल दिया है जिसके अंदर रह कर मैं कुछ और रहती हूं, बाहर रह कर कुछ और। मैं आंखें बंद कर के कुछ और सोचती हूं और आंखें खोल कर कुछ और देखती हूं। ऐसी गांठों को खोलना आसान नहीं होता है लेकिन अब मैंने इन्हें खोल दिया है, कई warsh लगा दिए इस गांठ को खोलने me .......अब जो मैंने किया है, वह केवल इस लिए,ताकि मैं किसी और से , खुद से झूठ न बोलूं ....... तुम्हारे साथ गुजारा हुआ वक्त अब मुझे सपने में भी नहीं सोचना है। यह सब मैं अपने लिए कर रही हूं। अपनी आत्मा को दागी होने से बचाने का एक प्रयास है। औरत का इससे बड़ा दुख और कुछ नहीं हो सकता है कि उसके सपनों को उसकी जुबान के सामने मुकरना पड़े। मुझे दुनिया के सुखों की चाह नहीं हैं। मेरे मन के सुख मेरी तरह से कुछ अनोखे हैं। षायद तुम समझ पाते । समाज के कानून से लिथड़ी हुई त्यौरियां मैं सहन नहीं कर सकती। आज तुम बेखबर हो कर सोए हुए हो। ऐसा लगता है जैसे तुमने कालों के बाद ऐसी नींद ली है। तुम्हारा चेहरा कह रहा है, तुमने सालों बाद भूख का व्रत तोड़ा है क्योंकि एक भरपूरता चमक रही है। ----------------- दोस्त की डायरी के कुछ अंश