Sunday, April 26, 2009

टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया ...ये जीना भी कोई जीना है

कल उसकी नौकरी चली गई। बैंक की नौकरी। अकसर मेरी उससे बात होती थी। कभी बैेंक काउंटर पर तो कभी बैंक के काम से। काफी अच्छे घर की बच्ची थी। नौकरी गंवाने के दो दिन बाद वह मेरे पास आई। बोली.......मुझे अहसास भी न था कि ऐसा हो जायेगा.....नौकरी जाने का गम नहीं है.......इसकी वजहों से मन परेशान है........मैंने पूछा क्या.......बोली.......कुछ लोग नहीं चाहते थे कि मैं नौकरी करूं........ मुझे पद्मा सचदेव, ढोगरी ‘ाायरा की याद आ गई। जब वे जम्मू रेडियो स्टेशन पर काम करती थीं, उन दिनों उन्होंने कवि सम्मेलनों में जाना ‘ाुरू कर दिया था। बाद में कुछ लोगों ने जम्मू स्टेशन को लिखा कि इन्हें नौकरी से निकाला दिया जाए, इनके रहने से रेडिया स्टेशन की बदनामी हो रही है........पद्मा जी ने इस दर्द को कुछ इस तरह से लिखा.............. मैं आसमान को कैसे थाम लूं... चांदनी को कैसे गले लगायूं.... और आगे लिखा... टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया.... ये जीना भी कोई जीना है ....

Monday, April 20, 2009

वक्त खड़ा देखता रहा खुले जख्म को.........

चुप सी रात में

यादों के रेले में

अंदर कुछ तिड़का

वो जख्म खुल गये थे

जो सिल दिये वक्त ने

रेले से एक साया निकला

हाथ बढ़ा कर

उसने जख्मों से धागा निकाल दिया

वक्त खड़ा देखता रहा खुले जख्म को

और साया रेले में गुम हो गया

Friday, April 10, 2009

अक्षर......जो भीतर में उतर आते हैं.......

` वो है ` और ´वो था,` इसके बीच का फासला केवल दुनिया का बनाया हुआ है, मोहब्बत करने वाले यह फासला नहीं मानते हैं........... दिल की मिट्टी में जब किसी का नाम अंकुरित हो जाता है.........जब उसकी पहचान पनप जाती है तो पेड़ की ‘ााखा कटने के बाद भी सलामत रहती है। जहां चिंतन का बौर उसी तरह से पड़ता है, अनुभव की पत्तियां उसी तरह पनपती हैं और खामोशी की खुशूब उसी तरह से उठती है......अमृता जी इस बारे में एक बहुत अच्चा और रूहानी जज्बा रखती हैं, उनके कहे अनुसार, जिसने भी रजनीश को पाया है,उसके लिये रजनीश कभी ´था ` नहीं हो सकता है........ वो हवा में है, जिसमें सभी सांस लेते हैं....... रजीनश की बात वो इस तरह से कहती हैं.......किताबों में पड़े हुए अक्षर मर जाते हैं, इस लिये किताबों की बात नहीं, उन अक्षरों की बात है जो अपने भीतर उतार लिये हैं.......जो भीतर में बो दिये हैं.......अक्षर......जो भीतर में उतर आते हैं.......वो मरते नहीं और .....वो धड़कते हैं .....दिलों में बस जाते हैं अमृता जी को पता था कि आगे क्या होने वाला है, इसी लिये उन्होंनें ऐसी बात कही...... .......और अब, इमरोज कभी अमृता जी को `थी´ करके नहीं बुलाते हैं, जब भी बात होती है, वे उन्हें `हैं´ करके ही बात करते हैं....... वो हमारे साथ ही हैं, उनकी बातें मुझे क्योें कर आज याद आ गई........आज विक्टोरिया पार्क अग्निकांड को तीन वशZ हो गये, उस स्थल पर आज उन सभी को याद किया गया जो इस हादसे में गुजर गये। वहीं किसी ने कह दिया, अग्निकांड में जाने वाले कहीं गये नहीं हैं, यहीं हैं यानि कि `हैं´ धड़कते अक्षरों की तरह से........

Wednesday, April 1, 2009

रह गया तेरे होने का जिक्र.........

रह गया तेरे होने का जिक्र

बन गया खामोश अहसास

अब तो आदत सी हो गई है इस जिक्र की

क्योंकि ये हर वक्त साथ साथ चलता है

कभी ये मेरे दिल में उतरता है

और मुझसे बातें करता है

बात करने का मन हो न हो

यह बात करता है ,तेरे होने की