मेरे साथ ही क्यों , अकसर कवरेज कर रहे मीडिया परसन को ऐसी दिक्कत आती होगी , जैसे कि शनिवार की शाम को मैंने फेस की।
10 अप्रैल की शाम को विक्टोरिया हादसे की चौथी बरसी का आयोजन था। शहर भर के लोग हादसे में चले गए लोगों की आत्मा की शांति के लिए एक दीप समाधिस्थल पर जलाने के लिए पहुंचे हुए थे। वहां वो लोग भी थे जिनके घर से परिजन हमेशा के लिए जुदा हो चुके थे। अपनों को गंवा चुके लोगों की आंखों के आंसू थे कि थम नहीं रहे थे। बेहद गमगीन माहौल में मैं एक पल को भूल गई कि मुझे इस मौके की कवरेज भी करनी है। मन बेहद भारी हो उठा। मेरी बगल में आंसू पौछती महिला मुझसे बोली, क्यांे आप इस दिन को अखबार की सुर्खियां देते हों। क्यों हमारे जख्मों को कुरेदते हो, प्लीज हमें हमारे दुखों के साथ जीने दो।मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसकी बात में क्या सफाई दूं, क्या जवाब दूं।
तभी मेरी नजर कुछ छोटे बच्चों पर गई जो समाधिस्थल पर फूल चढा रहे थे, कैंडल जला रहे थे। कभी नही आने वाले इनके परिजन जरूर इन्हें देख रहे होंगे कि ये बच्चे सच्चे मन से उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे हैं।
13 comments:
bahut dukh ki baat hoti hai.
हिन्दीकुंज
पत्रकार के लिए यही तो चुनौती है। क्या कीजिएगा आपको अपना धर्म किसी भी कीमत पर निभाना था।
पेशेगत मजबूरियाँ और मानवीय संवेदनायें -दोनों अपनी अपनी जगह हैं.
जिम्मेदारियों और मजबूरियों की बेड़ियाँ इंसान को कुछ भी करने के लिए मज़बूर कर देती हैं।
सच कहा आपने वो मासूम बच्चे सच्चे दिल से ही श्रद्धांजलि दे रहे होंगे..भगवान उनकी सुनेगा भी, क्योंकि वहाँ अकल नहीं..इश्क है..श्रद्धा है..अकल सोचती है..इश्क लुटाता है..श्रद्धा लुटाती है।
जय हिन्दी....जय हिन्द
yeh dard hai..
one of the best ones from you!
कभी कभी कुछ पेशो में भावुकता की उम्मीद कम की जाती है ....
adat par chuki hai surkhiyon me rehne ki...kuch nahi mila to chalo doosron ke dard hi kurede jayein...
मानवींदर जी.....ऐसे वक्त में बेशक बड़ी उहापोह हो जाती है...मगर कुछ हो नहीं पाता....मैंने एक जमाने में पत्रकारिता अपनी इसी कमी की वजह से छोड़ दी.....!!!
Sach mein aise kshno mein dil bahut dukhit hota hai.. ek gahre tees man ko andolit kar jaadi hai...
krm dhrm hai .
dhrm traju hai
taulne wala nishpksh hona chahiye .smvednsheel ,pthneey samgri ke liye dhnywad .aapko aage bhi pdhna chahungi .prteekhsha me ....
मन्विन्दर दीदी, कभी कभी स्थिति ऐसी भी आ जाती है। जैसी आपके साथ आई। एक दिन मुझे भी ऐसी ही एक स्थिति से दो-चार होना पडा। लेकिन यह भी एक मजबूरी है और हम लोगों का धर्म है। यह ऐसा ही है जैसे ''कफन बेचने वाले की मजबूरी होती है कफन बेचना, कौन जानता है कि जब वह कफन बेचता है तो अन्दर ही अन्दर कितना रोता होगा। किसी शायर ने कहा भी है---
होंठो पे हंसी देख ली, अन्दर नहीं देखा।
लोगों ने मेरे गम का समन्दर नहीं देखा।
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