एक तुम हो
जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावनाएँ
एक मैं हूं
जो कागज पर भी कुछ उतार नहीं पाती
तुमने अकसर झील के पानी पर
पहाड़ और पेड़ ऐसे उकेर दिये
जैसे झील पर उग आया हो एक संसार
झील पहाड़ और पेड़
मैं खोती रहती हूं इनमें
और देखती हूं अपने अक्षरों को
झील में तैरते हुए
पहाड़ पर चढ़ते हुए
पेड़ पर लटके हुए
तब तुम कहते हो
`आंखें खोलो´
पर नजरें कैसे मिलायूं
उस पल
25 comments:
manvinder ji ,
is poem mein aapne bhavnao ka jo sketch banaya hai , wo adbut hai ..
aur pyar ki ek khushubu si chipi hai ..
bahut sundar
vijay
Note : aaj maine imroz par kuch likha hai , dekhiyenga jarur.
सुंदर अभिव्यक्ति है यह
मनविंदर जी बहुत अच्छी और भावपूर्ण कविता बधाई स्वीकारें
बहुत ही सुंदर... वाकई
आंखें खोलो´
पर नजरें कैसे मिलायूं
उस पल
"wow, simply fantastic"
regards
एक तुम हो
जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावनाएँ एक मैं हूं
जो कागज पर भी कुछ उतार नहीं पाती
bahut khub....!
बहुत ही संवेदन शील रचना...वाह...
नीरज
बहुत सुंदर , गजब की तुलना की है आपनी
bahut sundar bhav
मैं खोती रहती हूं इनमें
और देखती हूं अपने अक्षरों को
झील में तैरते हुए
bhot khub Manvinder ji bhot bhavpuran kavita. acchi lagi ...bdhai...
Bahut sundar, khaaskar
"जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावना " prabhaav chod jaati hain.
kamaal ka sansaar racha hai
क्या बात है...वाकई झील से गहरे भाव!!! बधाई.
बहुत सुंदर भावः सुंदर शब्द रचना हमेशा के तरह लाज़बाब
एक तुम हो
जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावनाएँ एक मैं हूं
जो कागज पर भी कुछ उतार नहीं पाती
bahut sundar!
आंखें खोलो´
पर नजरें कैसे मिलायूं
उस पल
बहुत सुंदर भाव, बहुत खुब .
धन्यवाद
आंखें खोलने की बात सभी करते हैं पर दिखता है बाहर का ही सबकुछ जैसे झील में तैरता हुआ एक संसार पर मन की आंखें खोलें भीतर झांकें तो क्या कुछ मिलता है ?
माफ़ी चाहूँगा, काफी समय से कुछ न तो लिख सका न ही ब्लॉग पर आ ही सका.
आज कुछ कलम घसीटी है.
आपको पढ़ना तो हमेशा ही एक नए अध्याय से जुड़ना लगता है. आपकी लेखनी की तहे दिल से प्रणाम.
.............और देखती हूं अपने अक्षरों को
झील में तैरते हुए
पहाड़ पर चढ़ते हुए
पेड़ पर लटके हुए......... एक बेहद नाजुक रचना , बिम्बों का सुन्दर चित्रण , अच्छा लगा .
एक तुम हो जो पानी पर भी उकेर देते हो मन की भावनाएँ एक मैं हूं जो कागज पर भी कुछ उतार नहीं पाती तुमने अकसर झील के पानी पर पहाड़ और पेड़ ऐसे उकेर दिये ....
bahut hi bhavapoorn samvedanasheel abhivyakti.dhanyawad.
लोग पानी और कागज़ पर उकेरते होंगे
आप तो मन पर उकेर देती हैं .
अद्भुत अभिव्यक्ति
adbhud. bahut hi achha bhavnaon ka prastutikaran. kavita main tivrta hai jo iski jaan hai. badhai.
mere blog (meridayari.blogspot.com)par bhi aati rahen.
वाह मनविंदर जी वाह
एक तुम हो जो पानी पर भी उकेर देतो हो मन की भावनाएं और एक मैं हूं जो क़ाग़ज़ पर भी कुछ उतार नहीं पाती। क्या बिंब है। आपकी इस कविता में हर लाईन अपने आपमें कविता है। तुमने अक्सर झील के पानी पर पहाड़ और पेड़ उकेर दिये वाह वाह जैसे उग आया हो एक संसार झील पर वाह वाह और क्या कहूं
बहोत ही बढ़िया लिखा है आपने
ढेरो बधाई आपको ...
अर्श
बहुत सुंदर भाव
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