उस दिन
आसमान साफ था
बादलों में हलचल थी
वो अचानक मिले
जब उन्हें होश आया तो काफी आगे निकल चुके थे
वापस आना संभव न था
उस दिन
बदली ने कहा
मैं हवाअों के वश में हूं
मेरी किसमत में हैं पहाड़ों की चट्टानें
मेरे सामने हैं न खत्म होने वाली राहें
बिछड़ते हुए उदास न होना
कहीं
भटक जाऊं पहाड़ों में
या सुनसान राहों में
और मुझे नसीब हो रेत की एक कब्र
उस कब्र पर अगर पहुंचो
तो उस पर इबारत टांक देना
" हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "
33 comments:
sunder likha haen
अनुपम रचना...कमाल के भाव और शब्द संयोजन...वाह.
नीरज
बहुत थोड़े शब्दों से विजूअल्स खीचनें में सब लोग माहिर नही होतें है आप उस कला में पारगंत ही नही बहुत आगे है। अभी तक मैंने हरकिरत हकीर जी, और तानाबाना की विधू जी को इस कमाल से लबरेज पाया है। अच्छा! आज अगर अमृता जी होती तो क्या सोचती? इतनी सारी अमृताए अब हमारे बीच हैं। लोग उनको शब्दों की विरासत की वजह से याद रखते है लेकिन अब हमारे पास नयी खेतीया भी है। वो कही मनविन्दर होती है या कही हरकिरत। आपको पढ़ने के बाद लाजवाब हो जाना एक मामूली बात है।
इरशाद भाई ...अपने इतनी प्यारी बात कह दी है ,,,शुक्रिया ......कोई अमृता की तारीफ़ करता है तो दिल खुश होना लाजमी है .....लेकिन आप तो अमृता से हमारी तुलना कर रहें हैं .......हम कहा or अमृता जी कहाँ ......we तो अपने में najm थी....najm jeeti भी थी .....ये krishama है .....हम तो उनकी panw की dhool भी नहीं है.....बस unhen lafjon से naman करते हैं .....एक बार फिर से शुक्रिया
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण लिखा है आपने ..सुन्दर अभिव्यक्ति
गहरी बात....सुन्दर भावपूर्ण रचना.
बिंब अच्छा चित्रित किया । बहुत अच्छा लगा पढ़कर । बधाई( साथ की शब्द चयन भी सुन्दर है)
bahut badiya rachana likhi hai . abhaar.
मै जब भी आपके ब्लॉग पर आता हूँ. और रचना पढता हूँ तो हतप्रभ रह जाता हूँ. कमाल के शब्द हैं आपके पास. जब उन्हें गुंथती हैं तो बह विभोर कर देने वाली ऐसी रचना बन जाती है, जो आज से सौ साल पहले भी समाज की हकीकत थी. आज भी है. सौ साल बाद भी रहने वाली है. कभी कभी मुझे लगता है की हम लोग अपने आस पास पड़े कीमती कोहिनूरों को पहचान नहीं पाते. शायद इसलिए कि उसे पहचानने के लिए कुशल जोहरी होना पड़ता है. बहुत खूबसूरत रचना है. हम सब यही तो महसूस करते हैं लेकिन अभिव्यक्त नहीं कर पाते. अहसासों को इतने सुंदर शब्द नहीं दे पाते. यह रचनाधर्मिता यूँ ही जारी रहे. ये ही कामना है.
in khubsurat tippani mein tariff ka ek aur kohinorr jodna chaenge,sach alfazon aur bhav ka jadui sangam hai.
* क्षमा चाहते हुए यह कहना चाहूँगा कि हिन्दी ब्लाग पटल पर जो तरह -तरह की अभिव्यक्ति दिखाई दे रही है उसका स्वागत किया जाना चाहिए. मेरी दॄष्टि में यह वैविध्य ही इस माध्यम की विशिष्टता है. मुझे लगता है कि अगर हमारे पास यह माध्यम न आया होता तो शायद दैनंदिन क्रिया व्यापारों के दबावों के बीच अनुभूत को प्रकट करने की राह भी न मिली होती. यह सब मैं आपकी इस कविता ्को पढ़ने के बाद लिख रहा रहूँ . मुझे लगता है जो मनुष्य इतना संवेदनशील है वह रस्मी वाहवाही क ख्वाहिशमंद शायद ही हो. मेरी समझ से अब वह वक्त आ गया है जब हिन्दी ब्लाग -पटल पर आने वाली कविताओं को प्रिन्ट माध्ह्यम पर भी अपनी उपस्थिति दर्शानी चाहिए- चाहे वह पत्र - पत्रिकाओं में हो या संकलनों के जरिए. आप जैसे लोग जो पत्रकारिता की जमीन से जुड़े हैं उनसे पहल की उम्मीद है.प्रिन्ट माध्यम में ब्लाग का सक्रिय काव्य हस्तक्षेप बहुत जरूरी है क्योंकि ब्लाग के कवि और प्रिन्ट के कवि अलग - अलग देखे जा रहे हैं और यह माना जा रहा है ब्लाग पर अधिकांशत: एक्सटेंपोर /तात्कालिक है - गहन , गंभीर और देश-काल से परे जाने वाला एक्सप्रेशन नहीं.
** अब आपकी कविता पर क्या कहूँ ? उसी के बहाने ही तो इतना सब कह जाने को बाध्य हुआ !
***टिप्पणी लंबी हो गई -शायद अपनी बात मैं ठीक से रख पाया अथवा नही ! परंतु मुझे यह लगा कि अपने विचार को शेयर करना चाहिए.
अच्छी रचना है। पढवाने के लिए आभार।
बहुत नायाब और भावपुर्ण रचना.
रामराम.
बहुत ही अच्छी कविता. अहसास किया जा सकता है. आभार.
बहुत ही सुंदर भाव लिये है आप की रचना.
धन्यवाद
हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ
--बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!!
" हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "
bahut sunder abhivyakti, samajhne wale ko ishara.............
आख़िरी तीन पंक्तियो में तो आपने जीवन का सार ही समेत लिया.. बहुत खूब
विम्ब का बखूबी इस्तेमाल आज आपकी ये प्रतिभा भी सामने आयी...दिलचस्प अंदाज 1
bahut hi achchhi rachana...! abhibhut karne vaali
हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाओं के खिलाफ
बहुत खूब कहा है आपने, बधाई।
बहुत खूबसूरत लिखा है...बादल को रेत की कब्र नसीब हो...एक दूर दूर तक फैले रेगिस्तान को भिगोता बादल का एक टुकडा नज़र आ गया...अनूठा है ये बिम्ब.
इतनी सारी प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद कहने/लिखने को कुछ नहीं बचता। बधाई!
सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "
थोड़े से शब्दों में गहरी बात कहना तो आपकी हस्ती में शुमार है......
बहूत ही गहरी और शशक्त अभिव्यक्ति है इस रचना मैं
" हम उल्टी दिशायों के बादल अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "
wah... nothing to say about it mam...
'हम उल्टी दिशायों के बादल अचानक टकरा गये फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ'
-सुंदर.अति सुंदर.
nice post aunty ji
और बहुत शुक्रिया आपके स्नेह और प्यार के लिए
अब मुझे भी उत्सुकता हो रही है की आपका बेटा और मेरा नाम एक हे है तो क्या हम दोनों में कोई समानता होगी?
--
गुरुप्रीत सिंह पाबला
Manvinder Ji!
Hope! the air turblence will subside and once again you will sail through.. looking forward to your next poem!
GurinderJit
भटक जाऊं पहाड़ों में
या सुनसान राहों में
और मुझे नसीब हो रेत की एक कब्र
उस कब्र पर अगर पहुंचो
तो उस पर इबारत टांक देना
" हम उल्टी दिशायों के बादल
अचानक टकरा गये
फिर सारी उम्र लड़ते रहे हवाअों के खिलाफ "
वाह.. वाह... मानविंदर जी, बहोत खूब....! सच कहूँ तो तृप्त हो गयी...बहोत अच्छी रचना
सुभानअल्लाह.......!!
फिर सारी उम्र लड़ते रहे वो हवाओं के खिलाफ,,,,,,,,,,,,,,,,
बहुत ही शानदार,,,,,
ab kya misal doon aapkeqalam ki. bahut hi lajawab hai.
फ़िर सारी उम्र लड़ते रहे हवाओं के खिलाफ़……बधाई स्वीकारें।
आपकी शब्द बुनकरी मनहर है।
रचना पढने को विवश करती है
मेरी दो गज़ल हर सप्ताह
http://gazalkbahane.blogspot.com/
एवम्
दो मुक्त छंद कविता हर सप्ताह
http://katha-kavita.blogspot.com/
पर देख सकते हैं
श्याम सखा‘श्याम’
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