इक सुबह
मेरे आंगन में आ गया
इक बादल का टुकड़ा
छूने पर वो हाथ से फिसल रहा था
मैंने उसे बिछाना चाह
ओढ़ना चाहा
पर
जुगत नहीं बैठी
फिर
बादल को न जाने क्या सूझी
छा गया मुझ पर
मैं अडोल सी रह गई
और समा गई बादल के टुकड़े में
पता नहीं
किस टुकड़े को ओढ़ा
और कौन सा बिछ गया
मैं सिर से पांव तख
नहा गई
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई
25 comments:
बहुत सुंदर।
khubsurat andaaz
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई
वाह...क्या दिलकश अंदाज है आप का...सुभान अल्लाह...
नीरज
वाह क्या बात है...सुभानल्लाह
मोहक शब्दावली और संयोजन
बधाई स्वीकर हो मैम
इस एहसास को नाम ना दें
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई
कमाल है ! बहुत सुंदर है.
nice as usual
wah.
आपकी अभिव्यक्ति गहरी
और दिलको छूनेवाली है
- लावण्या
अब्र में अब्र-सा बन जाने से
रश्क होता है इस फसाने !
भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
अति सुंदर!
बहुत खूब आपने अपने विचारों को सुंदर तरीके से व्यक्त किया है
आपका मेरे ब्लॉग पर स्वागत है
बहुत भावपूर्ण लिखा है आपने मनविंदर
पता नहीं
किस टुकड़े को ओढ़ा
और कौन सा बिछ गया
मैं सिर से पांव तख
नहा गई
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई
" great, so impressive words"
regards
मन को भिगो देने वाली भावपूर्ण अभिव्यक्ति। बधाई।
मैं सिर से पांव तख
नहा गई
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई
bahut sunder composition
regards
वाह बहुत सुन्दर।
मनविदंर जी
आपने जो लिखा है उसके लिए मेरे पास शब्द ही नहीं है बहुत बहुत बहुत ही सुंदर रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं
बहुत सुंदर, बहुत बेहतर बात कही जी आपने. कितना गूढ़ार्थ है कविता में.
आभार सहित.
अद्भुत अभिव्यक्ति
बेहतरीन रचना
उलाहने की रहमत !
bahut acchey !
बहुत सुंदर रचना है।
bahut sundar kalpana hai.badhai.
ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा
बस सोचती रह गई
-bahut hi khubsurat abhivyakti
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