Wednesday, October 1, 2008

वक्त के साथ अक्षर गहरे हुए या फीके ....... ये वक्त जाने

अरसे बाद दराज खोला
कुछ धूल खाती चीजें मिली
टटोला तो कुछ मुड़े कागज भी मिले
जिन पर पहले कुछ लिखा
फिर लकीरें फेरी थीं
आंखों में वो अक्षर तैर आये
जिन पर लकीरें फेरी गई थी
वो अक्षर
खास अक्षर थे
आग को चूमना चाहते थे
जहर को पीना चाहते थे
उन्होंने
आग को चूमा
जहर को पिया
फिर
दराज में कहीं दब कर रह गये
धूल खाने के लिये
वक्त के साथ
अक्षर गहरे हुए या फीके पड़ गये
ये वक्त जाने

22 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

उन्होंने
आग को चूमा
जहर को पिया
फिर
दराज में कहीं दब कर रह गये
धूल खाने के लिये
वक्त के साथ
अक्षर गहरे हुए या फीके पड़ गये
ये वक्त जाने।

बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ हैं। इस सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई।

seema gupta said...

वो अक्षर
खास अक्षर थे
आग को चूमना चाहते थे
जहर को पीना चाहते थे
उन्होंने
आग को चूमा
जहर को पिया
"what a wonderful word selection'

regards

Arvind Mishra said...

सुन्दर पंक्तियाँ ! चलिए जो बीत गयी वह बात गयी !

Vinay said...

it's very nice poem of you.

महेंद्र मिश्र.... said...

खूबसूरत पंक्तियाँ.बधाई

शायदा said...

वक्‍़त ही जानता है हमेशा पूरा सच, वही बताता भी है...

Unknown said...

Your composition left me speechless. How words render the inner feelings is clearely demonstrated by you. Beautiful lines with much beautiful thoughts. Thanks for the composition.

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह जी क्‍या बात है आनंद आ गया लगा कि किसी ने मोती की माला बनाने के लिए मोती कहां कहां से ढूंढे बहुत अच्‍छी कविता है आपकी मन मोह लिया

रंजू भाटिया said...

वो अक्षर
खास अक्षर थे
आग को चूमना चाहते थे
जहर को पीना चाहते थे

बहुत अच्छी लगी यह पंक्तियाँ

Pratyaksha said...

बहुत सुन्दर!

Anonymous said...

बहुत सुन्दर!

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर! दराज और टटोलिये!!

michal chandan said...

बहुत खूब, अच्छा लिखा आपने

"अर्श" said...

chote subject pe badi sonch wah kya bat likhi hai aapne .... gajab ki thinking dekhane aur padhane ko mila aapke blog me ,main yahan pahali dafa aaya hun umda rachanayen padhane ko mili hai aapka dhero badhai...

regards

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह... वाह...
सुंदरतम...
बधाई..

जितेन्द़ भगत said...

very thoughtful poem

राज भाटिय़ा said...

क्या बात हे, अति सुन्दर.
धन्यवाद

प्रदीप मानोरिया said...

सुंदर ! आपको पधारने का आमंत्रण है हिन्दी का चिंतन पढने को मेने आपको मेरे ब्लॉग पर शामिल कर लिया है आप भी मुझे शामिल कर ले

प्रशांत मलिक said...

bahut achcha likhti hain aap...
kya kahne

Anonymous said...

aapne bahut accha likha hai.
padh kar bahut accha laga.
agar samay mile to hamare blog par bhi daskat de.aapki salah hamare liye bahut sahayak hongi.

adil farsi said...

अरसे बाद दराज खोला....अपने आप से जैसे कविता बातें कर रही हो....बधाई

Anonymous said...

उन्होंने
आग को चूमा
जहर को पिया
फिर
दराज में कहीं दब कर रह गये
धूल खाने के लिये
वक्त के साथ
अक्षर गहरे हुए या फीके पड़ गये
ये वक्त जाने।


Beautiful poem.