Sunday, April 26, 2009

टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया ...ये जीना भी कोई जीना है

कल उसकी नौकरी चली गई। बैंक की नौकरी। अकसर मेरी उससे बात होती थी। कभी बैेंक काउंटर पर तो कभी बैंक के काम से। काफी अच्छे घर की बच्ची थी। नौकरी गंवाने के दो दिन बाद वह मेरे पास आई। बोली.......मुझे अहसास भी न था कि ऐसा हो जायेगा.....नौकरी जाने का गम नहीं है.......इसकी वजहों से मन परेशान है........मैंने पूछा क्या.......बोली.......कुछ लोग नहीं चाहते थे कि मैं नौकरी करूं........ मुझे पद्मा सचदेव, ढोगरी ‘ाायरा की याद आ गई। जब वे जम्मू रेडियो स्टेशन पर काम करती थीं, उन दिनों उन्होंने कवि सम्मेलनों में जाना ‘ाुरू कर दिया था। बाद में कुछ लोगों ने जम्मू स्टेशन को लिखा कि इन्हें नौकरी से निकाला दिया जाए, इनके रहने से रेडिया स्टेशन की बदनामी हो रही है........पद्मा जी ने इस दर्द को कुछ इस तरह से लिखा.............. मैं आसमान को कैसे थाम लूं... चांदनी को कैसे गले लगायूं.... और आगे लिखा... टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया.... ये जीना भी कोई जीना है ....

27 comments:

Shamikh Faraz said...

manvindar ji mujhe aapki kavitayen bahut pasand aai. main aapse agrah karta hun k prerna se bhari koi kavita mere blog k lie bhi bhejen. dhanyavad

अनिल कान्त said...

unki ye panktiyan mujhe bahut achchhi lagi

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

रश्मि प्रभा... said...

ये जीना भी कोई जीना है,जब हर कदम पर जीने का शुबहा हो,
रख दी हो कफ़न किसी ने पास में ,
और मौत का हल्का इशारा तक ना हो.....

Anonymous said...

आपने बिल्‍कुल सही कहा- वो क्‍या जाने पीर पराई, जिसके पैर न फटे बिवाई।

निर्मला कपिला said...

thheek hi kaha hai usne magar jeena padta hai fir se apni rah talaashate huye

ghughutibasuti said...

यदि किसी का जीवन या नौकरी किसी अन्य की खुशी से रहे या न रहे य चले तो यह बेहद दुखद बात है।
घुघूती बासूती

"अर्श" said...

PADDA JI KI YE PANKTIYAN WASTAVIK MOOL SE JUDI HUYEE HAI JEEVAN KE ...DUKH HUA PADH KE ...MAGAR ZINDAGI KE RASTE TEDHE MEDHE HAI TO SAHI MAGAR ZEENA TO HAI NAA...


ARSH

Yogesh Verma Swapn said...

nirash na hon doosri mil jayegi.

jaane wale ka gam na kar
aane wale ka ban humsafar.

राजेश उत्‍साही said...

मानविन्‍दर‍ जी आप मेरे ब्‍लाग पर आईं,शुक्रिया। आपकी कविताएं देखीं। उनमें बहुत दर्द है। आप बुरा न मानें तो एक बात कहनी है कि उनमें थोड़ी और कसावट लाएं तो दिल के और गहराई में उतरेंगी। शुभकामनाएं।

राजेश उत्‍साही said...

माफ करें दिल के की जगह दिल की पढ़ें ।

के सी said...

ज़िन्दगी के अनुभवों में दर्द का हिस्सा कुछ ज्यादा ही है

डॉ. मनोज मिश्र said...

मिलना और बिछड़ना यही नियति है .

विधुल्लता said...

भावों और दर्दों का हिसाब -किताब ....

Nikhil Srivastava said...

Shukriya comment ke liye.
Accha laga. Waise main abhi kuch 5 mahine pahle tak aapse kabhi kabhi baat karta tha. Hindustan feature se kafi yaadein judi hui hain meri.

Prem Farukhabadi said...

टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया.... ये जीना भी कोई जीना है ....
बहुत कुछ कह रही है यह बात. बधाई.

डॉ .अनुराग said...

बेहतर है इसी समाज में रहकर अपने तरीके से जिंदगी जी जाये .....तभी पछाड़ सकते है इस दकियानूसी सोच को....

दिगम्बर नासवा said...

टेड़ी सिलायी उधड़ा बखिया.... ये जीना भी कोई जीना है ....

बहुत सुन्दर लिखा है...........पूरी पोस्ट ज़िन्दघी के कड़वे सच को बयान करती है...........कोई किसी की पीडा को नहीं समझ पाता............एक कवी मन हो इसको जानता है

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

"कुछ लोग नहीं चाहते थे कि मैं नौकरी करूं"...ओह, ये कारण ?

Anonymous said...

निदा फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल सुनाती हूँ...
कठपुतली है या जीवन है
जीते जाओ सोचो मत
सोच से ही सारी उलझन है
जीते जाओ सोचो मत
लिखा हुआ किरदार कहानी
मे ही चलता फिरता है
कभी दूरी कभी मिलन है
जीते जाओ सोचो मत
नाच सको तो नाचो जब थक जाओ
आराम करो
टेढ़ा क्यूँ घर का आँगन है
जीते जाओ सोचो मत
घूम रहे हैं बाज़ारों मे
सरमाये के आतिशदान
किस भट्टी मे कौन सा ईधन है
जीते जाओ सोचो मत

सुशील छौक्कर said...

अनुराग जी की बात हमारी भी बात।

इरशाद अली said...

जितनी जरूरत उतने ही शब्दों का इस्तेमाल। यर्थातवादी चिंतन और दो,तीन जींवत उदाहरण के साथ काव्यगत् सौन्दर्य।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आदरणीया पद्मा जी से बम्बई मेँ कई दफे मुलाकातेँ हुईँ थीँ - उनकी पँक्तियाँ मार्मिक हैँ
- लावण्या

तरूश्री शर्मा said...

कुछ लोग नहीं चाहते थे और नौकरी उन्होंने छोड़ दी। कतई मन नहीं करता कि इस हताशा भरे निर्णय को रत्ती भर भी सपोर्ट करूं या सहानुभूति के दो शब्द बोलूं। माफ कीजीएगा मानविंदर जी।

रवीन्द्र दास said...

bhatkate hue yahan aaya to laga thik jagah hi pahunch gaya.

Udan Tashtari said...

यूँ तो इस मंदी के दौर में हर व्यक्ति अपनी नौकरी से हाथ धोने तैयार बैठा ऐ प्राईवेट सेक्टर में किन्तु अन्य किसी के चाहने और न चाहने से ऐसा होना अतयन्त दुखद है.

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma said...

inna sohna oh wela hove
Jis wele
Main kalla
Chukk kalam taareya nu sanjovaa lafza ch
te aks ban aavein tu lehran naal
Mehboob mere

Bina khambaa toh udd k vekhaan
main bukkal bharr k apni taqdeer sajava
Weh challan tere sang
Ishqe de sagar
Mehboob mere

Chann badala de ohle jadd lukk jaave
Main chipp k karaan sharat koi
Tu Ghaddi pall russ jaave
Jhaati maar badlaa ohleyo
Tu fer hass jaave
Mehboob mere


Leher leher tere ch simtaaa
Ishq di hasrat ch liptaa
bann Jharna tere naal hassaa
aukhe saukhe mod te
tainu raah dassaa
Mehboob mere

Suraj de aunde hi tu luk jaave
Main wagda raha
Udeeka jadd Dhup langh jaave
Fer sunehri shaam aave
Aave aMbraa te Chann
Te aks ban aavein tu lehran naal
Mehboob Mere....................
dogi woman ki tarf se .aapko bhent.................

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma said...

DOGRI WOMAN KI TARAF SE*..CORRECTION