ये कैसे दिन हैं
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
शिकवे शिकायत की गूंज है
आंखों के खुश्क समंदर में कोई ख्वाब नहीं, किरच है
ये कैसे दिन हैं
पैरों के नीचे गरम गारा है
कदम कदम पर हवा में तलखियां हैं
लेकिन पैरों को जल्दी है नजर की सरहद से पार जाने की
ये कैसे दिन हैं
मन में मोह नहीं, बस रोश है
दिल में तूफान है, लपट है
कहीं चैन नहीं, टिकाव नहीं, नींद नहीं ख्वाब नहीं
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
ओ योगी, बता तो ये कैसे दिन हैं
क्यों हर पल गुजरे पल की तरह गुजरता है
गुजरा पल क्यों सूल सा चुबता है
मन की नाजुक माटी में आने वाला पल
क्यों खंजर की नोक का इंतजार करता है
एक अजीब खलिश से सने ये अलफाज किसी खोये हुए ‘ाायर की डायरी के हैं
39 comments:
itani bechaini, rosh,aur dard nahi dekha kabhi lekhan me .... aur upar se itni behatar unaki abhibykti...
bahot khub dhero badhai aapko...
arsh
bahut khoob
बहुत ही सुंदर रचना.
धन्यवाद
bahut hi achhi rachana badhai
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
अच्छी कविता है..बधाई.
ये कैसे दिन हैं
मन में मोह नहीं, बस रोश है
दिल में तूफान है, लपट है
कहीं चैन नहीं, टिकाव नहीं, नींद नहीं ख्वाब नहीं
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
ओ योगी, बता तो ये कैसे दिन हैं
... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति।
पढा -भाव मग्न हुआ सहसा !
मन की गहराइयों से लिखी कविता मनो लेखनी मैं स्याही नहीं दर्द भर दिया हो बहुत खूब
मेरे ब्लॉग पर पधार कर "सुख" की पड़ताल को देखें पढ़ें आपका स्वागत है
http://manoria.blogspot.com
बहुत सुंदर रचना है ....
बहुत बढ़िया सुन्दर लिखा है आपने मनविंदर ..
बहुत ही सुंदर रचना
समयचक्र: मेरा प्यारा अपना गाँव
ये कैसे दिन हैं
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
----YE PANKTIYAN BADALTE LAMHON KEE TALKH HAQUEEQAT KO BAYAN KARTA HAI. ITNEE KHOOBSURAT NAZM KE LIYE BAHUT-BAHUT SHUKRIYA.
मन में मोह नहीं, बस रोश है
दिल में तूफान है, लपट है
कहीं चैन नहीं, टिकाव नहीं, नींद नहीं ख्वाब नहीं
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
ओ योगी, बता तो ये कैसे दिन हैं
मानविंदर जी
बहुत ही गहरी, सोज़ से भरी रचना है. यूँ तो आपका हर लेख, सभी रचनाएं पढ़ते पढ़ते एक अनोखा एहसास होता है, मन में जैसे अजीब सी शान्ति, अजीब सा सूनापन भर जाता है. थोड़े शब्दों में बहुत लम्बी बाई होती है आपकी रचना में. दिमाग में देर तक उथल पुथल चलती रहती है पढने के बाद
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
ओ योगी, बता तो ये कैसे दिन हैं
क्यों हर पल गुजरे पल की तरह गुजरता है
लाजवाब भाव.
रामराम.
सुन्दर भाव अभिव्यक्ति.. कभी कभी मन सब जंजीरे तोड कर उडना चाहता है... क्यों न हो.. कैद किसे पसन्द है
क्या चुभन है!
पैरों के नीचे गरम गारा और कदम-कदम पर तल्खियां......क्या खूब लिखा है आपने।
मन की नाजुक माटी में आने वाला पल
क्यों खंजर की नोक का इंतजार करता है
lagata nahi ki in panktiyon ke dard ko samjhana pade.
bhoot hi vyavharik aur ekdam se dil ko chu lene wale udgar hain.
bhoot achha laga.
बहुत बढ़िया रचना है।सुन्दर भाव है....बधाई।
शब्दों की अभिव्यक्ति, जो सीधे दिल से निकले हो, जहां कोई नकलीपन नजर ना आता हो, जो व्याकरण, रदीफ और छन्द-बन्द की सीमा से परे हो। ऐसे शब्द लिखने के लिए कितने जन्म जीने पड़ते होगे। हलातो की कितनी तस्वीरे देखनी पड़ती होगी। एक-एक लाइन एक-एक किताब हुई जा रही है।
बेहद भाव पूर्ण रचना,मनोगत भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिय भाषा का कमनीय प्रयोग प्रशंसनीय है। मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करने के लिये
धन्यवाद। प्रतीक्षारत!
बहुत चलो सुन्दर रचना थी. आभार.
ये कैसे दिन हैं
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
शिकवे शिकायत की गूंज है
आंखों के खुश्क समंदर में कोई ख्वाब नहीं, किरच है
ये कैसे दिन हैं
पैरों के नीचे गरम गारा है
कदम कदम पर हवा में तलखियां हैं
लेकिन पैरों को जल्दी है नजर की सरहद से पार जाने की
ये कैसे दिन हैं
मन में मोह नहीं, बस रोश है
दिल में तूफान है, लपट है
कहीं चैन नहीं, टिकाव नहीं, नींद नहीं ख्वाब नहीं
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
ओ योगी, बता तो ये कैसे दिन हैं
क्यों हर पल गुजरे पल की तरह गुजरता है
गुजरा पल क्यों सूल सा चुबता है
मन की नाजुक माटी में आने वाला पल
क्यों खंजर की नोक का इंतजार करता है
एक अजीब खलिश से सने ये अलफाज
किसी खोये हुए ‘ाायर की डायरी के हैं
Aapne achchha kiya meri ghazal par comment karke. usiki vajah se "badlaav ki aahatoN" vali aapki ye kavita padhne ko mili. MaiN koshish karta raha ki iske kuch chune huye ansh chhant kar aapke comment-box meN paste karuN. Magar aisa na kar saka aur puri kavita hi paste karni padhi kyonki koi bhi ansh nikalne ko dil nahiN chaha. Sath hi kabhi Navonmesh meM likhi gayi apni ek puraani ghazal yaad aa gayi :-
ग़ज़ल
हो गए सब कायदे बेकायदा
अब तो इनको तोड़ दो बाकायदा
मन अगर माने तभी सर भी झुके
हो कुछ ऐसा बन्दगी का कायदा
छींक और बिल्ली से तो घबरा गए
आगे बढ़ने का सिखाते कायदा
जो हवाओं में ज़हर हैं घोलते
वो हवन से क्या करेंगे फायदा
-संजय ग्रोवर
मन में मोह नहीं, बस रोश है
दिल में तूफान है, लपट है
कहीं चैन नहीं, टिकाव नहीं, नींद नहीं ख्वाब नहीं
खाली उदासी हैं, दिल उचाट है
bahut hi umda....
सुन्दर अभिव्यक्ति.
सुन्दर अभिव्यक्ति.
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
बहुत खूबसूरत विचार हैं, जिन्हें आपने बहुत ही कलात्मकता से शब्दों का जामा पहना दिया है, बधाई।
Ek dard...ek rosh...jeevan se muh modne ki chahat se bhari rachna hai ye....
Badhai....
ये कैसे दिन हैं
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति...
awesome ...
cant say anything more then this
take care
suman
bhavnaon ki behad khoobsurat abhivyakti. sunder rachna.
Manvinder Ji,
You have described the real emotional challenges we are facing. Believe it, India is still a place where one can still find warmth in relationsships... Unfortunately we all are part of the same cycle..
Very good poetry!
- Gurinderjit, Montreal
Aadarneey manvindar ji ,
Sorry for late arrival, I was on tour for so many days...
ek bahut pyaari si nazm , jiska har lafz kabile tareef hai .. aur specially ...ye lines
गुजरा पल क्यों सूल सा चुबता है मन की नाजुक माटी में आने वाला पल क्यों खंजर की नोक का इंतजार करता है
kya behatreen likha hai ... padhkar ek ajeeb sa sakun mila
aapki lekhni ko salaam ..
maine bhi kuch naya likha hai , krupya padhiyenga ...
aapka
vijay
गुजरा पल क्यों सूल सा चुबता है
मन की नाजुक माटी में आने वाला पल
क्यों खंजर की नोक का इंतजार करता है
Bahut khub kaha aapne bahut2badhai...
sari duniya is bechaini aur is dard men dooba hua hai , drasl yhi hr koi hr kisi se janana chahta hai .
बहुत खूब....बहुत सुन्दर कविता है..बधाई !!
पैर लकीरों से बाहर चलना चाहते हैं
कंधे संस्कारों के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं
माथे पर मोहब्बत का परचम नहीं
बस शिकन है
शिकवे शिकायत की गूंज है....
बेहतरीन रचना....
बेचैनी की इतनी खूबसूरत प्रस्तुती । वाह ।
sundar ..marmsparshi bhaav
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