Sunday, January 18, 2009

बादलों के महल में सोया है सूरज

चार दिन पहले ही मकर संक्रांति थी। सोचा रसोई में कुछ बना लूं। दो मन हो रहे थे। मन धुंआ धुंआ था लेकिन बात यह भी सता रही थी कि इस दिन का कुछ तो होना चाहिए। सो खीर चढ़ा दी। खीर की खुशबू से सारा घर महक उठा। इसके बाद खिचड़ी के लिये चावल धोए। चावलों पर जरा सा पानी क्या पढ़ा, कच्चे चावल भी महकने लगे। चूल्हे पर एक तरफ खीर बन रही थी तो दूसरी ओर खिचड़ी।दोनों में कड़छी चल रही थी। पतीले में कड़छी चलाते हुए लगा कि उंगलिये के जरिये धीरे धीरे कड़छी में मैं उतर रही हूँ । अब पतीले में खीर नहीं, यादों के बवंडर हिल रहे है। मन अंधेरे गारो में उतरने की गुस्ताखी पर उतारू हो गया। आज इसने ऐसी जुर्रत क्यों की? अपने आप को चिकोटी काटी तो देखा सामने बादल छाये हुए हैं। मन गारों से बचा तो बादलों में खो गया। बादलों के पार वाले महल में सूरज सोया हुआ है। वहां पहुंचने के लिये कोई रास्ता नहीं, न कोई सीढ़ी, न दरवाजा, न हीं खिड़की। जो रास्ते दिख भी रहे हैं, वहां पहुंचने के लिये बहुत संकरे हैं। खिचड़ी और खीर को पतीले से निकाल कर ढोंगे में रख दिया। साथ ही सूरज की चाहना को भी तह कर संभाल दिया।

32 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह जी बेहतरीन लफजों में बयां की है आपने खीर और खिचडी से सूरज तक का सफर आभार

निर्मला कपिला said...

िअच्छाजि आपने अकेले अकेले खीर खाई लेकिन अगली बार ऐस ना करें सूरज निकले ना निकले हम खीर खाने जरूर आएँगे

Alpana Verma said...

साथ ही सूरज की चाहना को भी तह कर संभाल दिया।
मन गारों से बचा तो बादलों में खो गया। बादलों के पार वाले महल में सूरज सोया हुआ है। वहां पहुंचने के लिये कोई रास्ता नहीं, न कोई सीढ़ी, न दरवाजा, न हीं खिड़की।

bahut sundar abhivyakti hai dil mein utartey chadhtey bhaavon ki..umeedon /ashayon ko rastey mushkil se miltey hain...!

शायदा said...

क्‍यों रख दिया तहाकर, क्‍यों नहीं ओढ़ लिया, बिछा लिया...

dpkraj said...

दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत किया गया संस्मरण।
दीपक भारतदीप

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर भाव लिये है आप का यह लेख.... लेकिन मेरी तो नीयत उस बेचारी खीर मै ही अटकी है.. क्या हुआ उस खीर का ?? कही खीर नमकीन ओर खिचडी मिठ्ठी तो नही बना दी ,,,:)

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

ब्राह्मण आदमी मुझे तो यह चिंता लगी हुई है कि फिर खीर खाई कि नहीं। खा कर देखना था, तृप्ति की जो लहर उठती उससे सूरज भी जाग कर सामने आ जाता।
देर से ही सही पर्व की बधाई स्वीकारें।

दिगम्बर नासवा said...

बेहतरीन शब्दों में लिखे हैं दिल के ज़ज्बात.............पर सूरज तक पहुँचने के लिए तो ख्यालों की उड़ान ही काफी है और आपके ख्यालों की उड़ान का तो कोई छोर नही

Udan Tashtari said...

सुन्दर कोमल अभिव्यक्ति!

!!अक्षय-मन!! said...

शुरू की पंक्तियों मैं माँ की याद आ गई......
वो आफताफ बादलों में खोया खोया रहता है
जलता है फ़िर भी बादलों में सोया सोया रहता है

अक्षय-मन

अमिताभ मीत said...

सूरज को तो हमेशा से दगा़ की आदत है ..... ये सारा खेल उसी का रचा है ... रौशनी का ...

बहरहाल.... बहुत अच्छा है ...

विधुल्लता said...

मनविंदर जी मुझे तो खीर खिचडी और सूरज ..शब्दों की खुशबू ने ही परेशान कर दिया देहली आरही हूँ खिलायेगा जरूर,बधाई

सुशील छौक्कर said...

सुन्दर, कोमल, प्यारी अभिव्यक्ति!

Akhilesh Shukla said...

माननीय मानविंदर जी
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Dr Parveen Chopra said...

बढिया लिखा है . अच्छा लगा।

संगीता पुरी said...

बढिया प्रस्‍तुति...अच्‍छा लगा पढकर।

नीरज गोस्वामी said...

खीर और लफ्ज़ दोनों की खुशबू में डुबो दिया आपने..बहुत खूब जी.
नीरज

Vinay said...

बहुत ख़ूब, सुन्दर अल्फ़ाज़

---
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P.N. Subramanian said...

हमें भी अपनी अम्मा की याद आ गयी. भावनात्मक लेख. आभार.
http://mallar.wordpress.com

जितेन्द़ भगत said...

रसोई में खड़ी स्‍त्री को याद करता हूँ तो सबसे पहले मुझे मेरी मॉं याद आती है। स्‍त्री वहॉं खड़ी होते ही युग की परि‍धि‍ से परे चली जाती है। एक अलग ही बंधन, एक अलग ही अवि‍चलन नजर आता है और नहीं भी आता....

रंजू भाटिया said...

बढ़िया कोमल अभिव्यक्ति है ..कुछ ऐसा ही महसूस होता है कई बार

seema gupta said...

मन गारों से बचा तो बादलों में खो गया। बादलों के पार वाले महल में सूरज सोया हुआ है। वहां पहुंचने के लिये कोई रास्ता नहीं, न कोई सीढ़ी, न दरवाजा, न हीं खिड़की। जो रास्ते दिख भी रहे हैं, वहां पहुंचने के लिये बहुत संकरे हैं। खिचड़ी और खीर को पतीले से निकाल कर ढोंगे में रख दिया। साथ ही सूरज की चाहना को भी तह कर संभाल दिया।
" शब्द, भाव, कोमलता, अभिव्यक्ति, किस किस की तारीफ करूं???????? मन खो गया है कहीं दूर बादलों मे इन शब्दों के साथ ..."

Regards
"

कुश said...

वाह भाव की श्रंखला खड़ी कर दी आपने तो

डॉ .अनुराग said...

आज भी कुछ ऐसा ही है जी....जरा झाँक कर देखे....

Asha Joglekar said...

बडा अच्छा लगा आपका यह अनुभव . कुछ ऐसा ही हमारा भी था । घर में डायबिटीज का मरीज हो तो मीठा सोचकर बनाना पडता है फिर भी 200ग्राम तिल की बर्फी बना ही ली चाहे एक एक टुकडा खाकर बाकी भाँजे को पहुँचवा दी। और सूरज की भली कही वह तो आजकल सरकारी कर्मचारियों की तरह छुट्टियाँ मार रहा है । पर सर्दी का मजा आ रहा है ।

प्रदीप मानोरिया said...

घर के दैनिक कार्यों के मध्य गंभीर चिंतन वाह वाह

बवाल said...

साथ ही सूरज की चाहना को भी तह कर संभाल दिया।
सूर्य-संक्रांति पर कितने बेहतरीन ख़याल ।

Hari Joshi said...

राज भाटिया जी की सोच पर गौर कीजिएगा। मन तो मेरा भी खीर में ही अटक गया। अगर बची हो तो फोन कर दीजिएगा।

Science Bloggers Association said...

अपने मन के भावों को बहुत ही नफासत के साथ बयॉं किया है, बधाई।

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

यह अभिव्यक्ति स्ट्रीम ऑव कॉंशियसनेस तकनीक का सहज और सुन्दर उदाहरण है.


इसे ब्लॉग पर देने के लिए शुक्रिया

Anonymous said...

गणतंत्र दिवस की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं

http://mohanbaghola.blogspot.com/2009/01/blog-post.html

इस लिंक पर पढें गणतंत्र दिवस पर विशेष मेरे मन की बात नामक पोस्‍ट और मेरा उत्‍साहवर्धन करें

महेन्द्र मिश्र said...

प्रस्तुति के लिए आभार

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं सहित