Tuesday, August 26, 2008
झारखंड का गरीब राजू
2007 की वह 7 फरवरी की सुबह थी, जब पहली बार मेरे घर आया, मैने पहली बार देखा तो वह काफी कमजोर और डरा हुआ लग रहा था। मैंने उससे उसका नाम नाम पूछा , उसने बताया, राजू। मैंने उसे देखते ही अपने पति से कहा, इससे मैं घर का काम नहीं करायूंगी। बोले, क्यों, मैंने कहा, यह तो बहुत छोटा है। मेरी बातें राजू ने सुनी तो बोला, आंटी, मुझे वापस मत भेजना, मेरी मां को पैसे की जरूरत है। घर में पैसे की तंगी है। मैं छोटा नहीं हूं, मैं पहले भी काम कर चुका हूं, मैंने पूछा कहां, बोला, गांव में पत्थर तोड़ने का काम किया है मैंने। अपने हाथ दिखा कर बोला, ये देखो, मेरे हाथ पत्थर तोड़ कर कैसे पत्थर हो गये हैं। मासूम के हाथ सचमुच पत्थर के से थे, उसकी मासूमियत से मैं ये भी भूल गई कि ये बच्चा मेरे पास घर का काम करने आया है। मैंने उसे प्यार से कहा, नहीं अब तुम यही रहोगे, मेरे पास। बस वो मेरे पास रहने लगा, उसकी उम्र यही होगी, कोई चोदह साल की लेकिन लगता बहुत छोटा था। झारखंड से आया था। दिन महीने गुजरे, राजू कुछ ही दिनों में कद निकालने लगा। छह महीने में उसका सांवला सा चेहरा भरने लगा और और उसमें महानगर की हवा दिखने लगी। हम आफिस निकल जाते, वह घर में ,बीजी मेरी सासु जी के पास रहता। उसकी उम्र को देखते हुए मैंने घर में पार्टटाइम नौकरानी रख ली लेकिन फिर भी वह मेरा काफी काम देता था। मैं उसे घर पैसे भी भिजवाती रही। जब बेटे आते तो वह बहुत खुष दिखयी देता। उनके कपड़े देख कर वैसे ही कपड़ों की मांग करता, मैं भी ला कर देती। एक दिन राजू बोला, आंटी, जब मैं घर जायूंगा तो मुझे बहुत सारे नोट देना, मैं अपनी मां की झोली डाल दूंगा। मैंने उसे समझाया कि रेल में छोटे नोट संभालने में दुविधा होगी, मैं जाते समय बड़े नोट ही दूंगी। अप्रैल में उसके गांव में मेला भरता है नवरात्रा के महीने में। मैं उसकी तैयारी कर रही थी, राजू बोला, आंटी आप तो ऐसे तैयारी कर रही हो जैसे मैं कभी आयूंगा ही नहीं, मैंने कहा, नहीं गांव में मेला देख कर तुम लौट आना। मैंने उसके हिसाब के पैसे उसके अंदर के कपड़ों में थैली में सिल दिये और कहा , मां के सामने ही जा कर अंदर वाले पैसे निकालना, टिकट दिलवायी और रेल में बिठा दिया, रेल में बैठ कर राजू बोला, मैं जाते ही फेान कर दूंगा। मुझे उसके अकेले जाना ठीक नहीं लग रहा था लेकिन उसकी मां ने रिक्वेस्ट की तो मैंने उसे भेज दिया। और राजू पहुंच गया अपने गांव, अपनी मां के पास, इस बीच उसके कई बार फेान आते रहे। जुलाई के किसी दिन वह फोन पर बोला, आंटी में कल बैठ रहा हूं आने के लिये, मैंने बोला, अभी मत आना , भईया दिल्ली में नहीं है मुंबई गया है, वह तुम्हें दिल्ली से रिसीव नहीं कर सकेगा, फिर दो दिन के बाद ही उसकी मां का फोन आया कि राजू की तबीयत ठीक नहीं है, मैंने ज्यादा गौर नहीं किया और दिन गुजरने लगे। आज अचानक उस बंदे का फोन आया जो राजू के गांव का ही तथा वही राजू को ले कर आया था, उसने बताया, राजू नहीं रहा, मेरे लिये यह चौकने की खबर थी, उसने बताया कि राजू की किडनी फेल हो गई थी, मां के पास इलाज के लिये पैसे भी नहीं थे, उसके गांव में कोई खास दवादारू भी नहीं हो सकी क्योंकि वहां अस्पताल भी नहीं है। रांची ले कर जाने के लिये घर में पैसे नहीं थे, बस चला गया गरीब राजू दुनिया छोड़। मेरा मन तभी से ठीक नहीं हो रहा हैं। बैचेनी महसूस हुई तो लिखने बैठ गई। दिमाग में आ रहा है कि गरीब क्या ऐसे ही चला जायेगा दुनिया से बिना दवा के, बिना इलाज के, हर दिन टीवी पर देखती हूं, गरीबों के लिये तैयार होने वाली योजनाओं के विज्ञापन, उनके लिये चिकित्सा की चिंताएं लेकिन राजू को तो इलाज नसीब नहीं हुआ। ऐसे न जाने कितने राजू हैं जो हर दिन मां को रोता बिलखता छोड़ जा कर रहे हैं हिंदुस्तान के देहातों से, लेकिन कौन सवाल उठाता है इस व्यवस्था पर।
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4 comments:
bahut marmik chitran kiya hai.
lajwab
Rakesh Kaushik
बहुत मार्मिक लिखा है आपने यह मनविंदर बदती महंगाई और गरीबी शायद इसी हालत में पहुँचा देते हैं |
दुखद....
apke lekh mein bhaut gharai hoti hein. aur asa lagta ki sub kuch ankho ke samne ho rha ho
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