Thursday, January 5, 2012

ये कहानी नहीं है .....

वो कभी ये समझ नहीं पाया कि उसके साथ वो स्टेशन पर क्यों जाती थी। कई बार वो अलग पहुंचता और वो अलग। दोनों कुछ देर तक रेलवे स्टेशन पर साथ रहते। बात करते। गाड़ी आती और वो चला जाता। वो भी वापस लौट आती। यह सिलसिला सालों साल चला। एक दिन , वो अपने साथ अपनी लिखी किताब लाया और उसे दे दी। किताब पढ़ते पढ़ते वो किताब में लिखे शब्दों में अपने आप को ढूंडती रही, सारे पन्ने पढ़ लिए लेकिन वो कहीं नहीं थी। किसी अक्षर में उसका चेहरा नहीं था। उसकी बात नहीं थी। वो कहानी उसकी थी ही नहीं। उसके किरदार कोई ओर थे। वो अब भी मिलते हैं लेकिन अब वो ज्यादा खुश रहती है, उस दर्द के साथ जो उस किताब की कहानी से मिला। कहानी ने उसे उसका वजूद बताया। कहानी ने लिखने वाले को भी बहुत कुछ सिखाया क्योंकि कहानी के किरदार उसके नहीं रहे। नहीं पता, उसने कहानी के किस किरदार को क्यों छोड़ा था, क्यों चुना था। क्यों ? क्यों ? यह सवाल तो हैं लेकिन उसके नहीं , जो कहानी में शामिल नहीं हो सकी। उसके हैं जिसने कहानी लिखी। कहानी में किरदार न बन सकना किसमत थी, कहानी के किरदार दगा दे जाए , ये भी किसमत है। अपने अपने हिस्से को जी रहे हैं।

3 comments:

Satish Saxena said...

इक मुसाफिर थका है ,
यहाँ दोस्तों !
जल मिला ही नहीं
इस बियाबान में !
क्या पता कोई भूले से, आकर मेरा
कर दे पूरा सफ़र जो, अधूरा अधूरा !

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

kitni bhaavpooorn katha hai!

Jeevan Gatha said...

http://merijeevangatha.blogspot.com/