Friday, July 23, 2010
बिरहा के सुल्तान शिव तुम्हें लूना याद करती है ........
दोस्तों , समाज में बेमेल विवाह हर दौर में होते रहे हैं , अभी भी जारी है। कभी किसीोटी को मजाूरी में तो किसीोटी को जानाूझ कर तिगुनी उम्र के मर्द के साथ जोड़ दिया जाता है। चंो की पहाड़ियों में रहने वाली लूना ऐसा ही चरित्र है जिसे अपनी कलम से कई कलमकारों ने छूने का प्रयास किया है। दरअसल, लूना को उस व्यक्ति के लड़ बांध दिया जाता है जिसका बेटा लूना के बराबर का है। लूना के पिता की भी मजाूरियां रहीं होंगी लेकिनोमेल विवाह ने लूना को कैसे हर दिन तोड़ा, इसका जिक्र जा काव्य रूप में पंजाा के कवि शिव कुमाराटालवी ने किया तो वह पजाां की लोकगाथा साान लोगों की जुाां वर चढ़ गया। आज शिव कुमाराटालवी का जन्म दिन है। लूना का जिक्र मैं इस लिए कर रही हूं क्योंकि शिव ने एक मर्द हो कर भी लूना के दर्द को समझा और उसे शदों से अपने काव्य में पिरो दिया। लूना का दर्द शिव के शदों इस तरह से उभरा कि लूना काव्य ग्रंथ ने शिव को रातों रात कवियों की पहली कतार में खड़ा कर दिया। शिव को लूना के लिए 1965 में साहित्य एकेडमी पुरस्कार भी मिला। मात्र 28 वर्ष की उम्र में साहित्य एकेडमी अवार्ड लेने वाला शिव पहला कवि है।
आ हम बात करते हैं लूना के दर्द की, जो कभी उसके दिल में ओने बाबुल के लिए उठा तो कभी बाबुल की रसोई के चूल्हे में जला। लूना को शिव ने बड़े अनोखे ढंग से पेश किया है। लूना के दर्द को उजागर करने के लिए शिव ने लूना से ही उसकी सखियों को संोधित करवाया। कभी शादी के रिश्ते कीाात शुरू होने पर तो कभी विवाह के मौके पर। कभी लूना के पति के साथ साथ रहते रहते । आज शिव को याद करते हुए मैं कुछ उन पलों का अनुवाद प्रस्तुत करने जा रही हूं जहां लूना का ही नहीं हर उस औरत का दर्द समझा जा सकता है जो लूना जैसी परिस्थितियों से गुजरी है।
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सखियो......
मैं आग चली परदेश......
आग चली परदेश......
एक छाती में हाड तपता.......
एक छाती में जेठ........
ओ मैं आग चली परदेश.......
आग की उम्र में.......
हर आग........
ja baithati है pardesh......
हर आग के.......
ाााुल के चूल्हे.......
सदा न रहता उसका सेक.......
हर आग के.........
ाााल की जायी.......
चली जाए परदेश.......
यह क्या आग के लेख.......
सखियो.......
ये क्या आग के लेख......
हर घर की कंजक.......
पर जा आती है आग की रूत.......
हराााुल......
वर खोजन निकले......
हर आग सा मेल......
हर आग ही छोड़ जाए.......
सखियो......
हराााुल का देश.......
लगा हाथों पर जलती मेहंदी......
पहन का आग का भेष......
मैं आग चली परदेश......
पर सखियो.......
मैं कैसी आग हूं........
कैसे मेरे लेख.......
तो मुख का सूरज जलता......
दूजा जले पांव तले.......
तीजीौठी........
देह के आंगन में......
फिर भी सखियो.........
ाुझता जाता......
इस अगन का सेक........
जोाााुल वर........
खोज लिया.......
वो न आया मेरे मेल.......
मैं आग चली परदेश......
सुनो सखियों........
आग के दर्द को कौन सुने......
आग के दर्द को कौन पहचाने.......
आग के दुख को जाने कौन......
सखियो......
जा भी आग जन्म लेती है......
आग की अांरी रो पड़ती है........
कोख में सोची थी पुत्र की खुशाू.......
पर आग जन्मी.......
आग देख अमड़ी का दूध सूखे.........
और कलेज में होल उठे ......
ाााुल की पगड़ी होतीोरंग......
......
कितनीाुरी सोच पड़ती है......
जन्म दिहाड़े से......
द्वार सेािदा करने की.......
चिंता पड़ती है......
यहां लूना अपने आप को आग कहती हुई अपनी aapa biti कह रही है। सच, उसके दर्द कोई थाह नहीं है लेकिन इन पंक्तियों को आप क्या कहेंगे जिसमें शिव कुमार ने शायद अपना भी दर्द जोड़ दिया है।
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ओ सखियो......
री कुजिओ (चााियो).......
मुझे ऐसा ताला मारो.......
न वो खुले......
न वो टूटे.......
चाहे लाख हथौड़े मारो......
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शिव की लूना पढ़ कर लूना का दर्द हर औरत के दिल में कुदालें चलाता है। शिव कुमार के जन्मदिन पर सभी कलमकारों का शिव को नमन।
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2 comments:
very good article.
कहाँ थी अब तक?आज तुम्हारे जरिये शिव को और शिव के शब्दों मे लूना को जाना.अरे ऐसी ही तो एक लूना मुझ मे जीती है.नही...मेरा बेमेल विवाह नही.चाँद-सा है मेरा 'वो' और बच्ची -सा सहेज रखा है मुझे शादी के बाद से.किन्तु जब लूना को पढा उसका दर्द मेरी दिल से उसकी 'हुक' बन कर उभर उठा.आंसू भी नही गिर रहे मेरी आँखों से जैसे उसकी तडप ने उन्हें रोक लिया है.लूना हर युग मे हुई है बाबु! और होती रहेगी तुम्हारे मेरे या शिव के तड़पने से भी क्या हासिल.
उसके दर्द को खूब उकेरा तुमने.
प्यार.
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