बात सालों की है
दहलीज पर एक
जोगी आया
उसने मांगे कुछ अक्षर
पहले मैं सोच में पड़ गई
फिर
रब को याद किया और
मैंने दे दिये उसे अक्षर
उसने अक्षरोंकी माला गूंथी
आंखों से चूमी
और मेरी ओर बढ़ा दी
मुझे वो जोगी नहीं
बादलों से उतरा एक नूर सा लगा
मंत्रा के नूर से उजली हुई
वो माला मेरे सामने थी
मैं अडोल सी खड़ी रह गई
और सोचने लगी
कैसे लूं माला को
माला को झोली में लेने से पहले ही
मेरे पांव चल चुके कई काल
काल के चेहरे थे
कुछ अजीब
किसी के हाथ में पत्थर थे
तो किसी के हाथ में फूल
फिर अचानक
मैंने वो माला झोली में ली
और सीने से लगा ली
उपर से पल्ला कर लिया
पल्ले के अंदर बन गया इक संसार
अब कभी कभी पल्ला हटा कर
माला के अक्षरों को कागज पर रखती हूं
कभी उनकी कविता बनती है
तो कभी नज्म
जोगी का फेरा जब लगता है
कागज पर रखे अक्षरों को देखता हैं
मुसकुराता है
कहता है
यही तो मैं चाहता था
इनकी कविता बने
नज्म बने
और बिखर जाएं सारी कायनात में